महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 18-32

त्रिनवतितम (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! लोग ब्राह्मणों को नाना प्रकार की वस्तुएँ दान करते हैं। दान देने और दान लेने वाले पुरुषों में क्या विशेषता होती है।

भीष्म जी ने कहा- राजन! जो ब्राह्मण साधु अर्थात उत्तम गुण-आचरण वाले पुरुष से तथा असाधु अर्थात दुर्गुण और दुराचार वाले पुरुष से दान ग्रहण करता है, उनमें सद्गुणी-सदाचार वाले पुरुष से दान लेना अल्प दोष है, किंतु दुर्गुण और दुराचार वाले से दान लेने वाला पाप में डूब जाता है। भारत! इस विषय में राजा वृषादर्भि और सप्तर्षियों के संवादरूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है।

एक समय की बात है, कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, भरद्वाज, गौतम, विश्वामित्र , जमदग्नि और पतिव्रता देवी अरुन्धती- ये सब लोग समाधि के द्वारा सनातन ब्रह्मलोक को प्राप्त करने की इच्छा से तपस्या करते हुए इस पृथ्वी पर विचर रहे थे। इन सब की सेवा करने वाली एक दासी थी, जिसका नाम था ‘गण्डा’। वह पशुसख नामक एक शूद्र के साथ ब्याही गयी थी (पशुसख भी इन महर्षियों के साथ रहकर सब की सेवा किया करता था)।

कुरुनन्दन! एक बार पृथ्वी पर दीर्घ काल तक वर्षा नहीं हुई, जिससे अकाल पड़ जाने के कारण यह सारा जगत भूख से पीड़ित रहने लगा। लोग बड़ी कठिनाई से अपने प्राणों की रक्षा करते थे। पूर्वकाल में शिवि के पुत्र शैव्य ने किसी यज्ञ में दक्षिणा के रूप में अपना एक पुत्र ही ऋत्विजों को दे दिया था। उस दुर्भिक्ष के समय वह अल्पायु राजकुमार मृत्यु को प्राप्त हो गया। वे सप्तर्षि भूख से पीड़ित थे, इसलिये उस मरे हुए बालक को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। तब वृषादर्भि बोले- 'प्रतिग्रह ब्राह्मणों के लिये उत्तम वृत्ति नियत किया गया है। तपोधन! प्रतिग्रह दुर्भिक्ष और भूख के कष्ट से ब्राह्मण की रक्षा करता है तथा पुष्टि का उत्तम साधन है। अतः मेरे पास जो धन है, उसे आप स्वीकार करें और ले लें। क्योंकि जो ब्राह्मण मुझसे याचना करता है, वह मुझे बहुत प्रिय लगता है। मैं आप लोगों में से प्रत्येक को एक हज़ार खच्चरियाँ देता हूँ तथा सभी को सफेद रोएँ वाली शीघ्रगामिनी एवं ब्‍याही हुई गौएँ सांड़ों सहित देने को उद्यत हूँ। साथ ही एक कुल का भार वहन करने वाले दस हज़ार भारवाहक सफेद बैल भी आप सब लोगों को दे रहा हूँ। इतना ही नहीं मैं आप सब लोगों को जवान, मोटी-ताजी, पहली बार की ब्यायी हुई, अच्छे स्वभाव वाली श्रेष्ठ एवं दुधारू गौएँ भी देता हूँ। इनके सिवा अच्छे-अच्छे गांव, धान, रस, जौ, रत्न तथा और भी अनेक दुर्लभ वस्तुएँ प्रदान कर सकता हूँ। बतलाइये, मैं आपको क्या दूँ? आप इस अभक्ष्य वस्तु के भक्षण में मन न लगावें। कहिये, आपके शरीर की पुष्टि के लिये मैं क्या दूँ?'

ऋषि बोले- 'राजन! राजा का दिया हुआ दान ऊपर से मधु के समान मीठा जान पड़ता है, परंतु परिणाम में विष के समान भयंकर हो जाता है। इस बात को जानते हुए भी आप क्यों हमें प्रलोभन में डाल रहे हैं? ब्राह्मणों का शरीर देवताओं का निवास स्थान है, उसमें सभी देवता विद्यमान रहते हैं। यदि ब्राह्मण तपस्या से शुद्ध एवं संतुष्ट हो तो वह संपूर्ण देवताओं को प्रसन्न करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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