एकादशधिकद्विशततम (211) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: एकादशधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेय जी कहते हैं- भरतनन्दन! धर्मव्याध के इस प्रकार उपदेश देने पर कौशिक ब्राह्मण ने पुन: मन की प्रसन्नता को बढ़ाने वाली वार्ता प्रारम्भ की। ब्राह्मण बोला- धर्मात्माओं में श्रेष्ठ व्याध! जो पांच महाभूत कहे जाते हैं, उन पांचों में से प्रत्येक के गुणों का मुझसे भली-भाँति वर्णन करो। धर्मव्याध ने कहा- ब्रह्मन्! पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु और आकाश-ये सब पूर्व-पूर्व वाले तत्व अपने से उत्तर-उत्तर वालों के गुणों से युक्त हैं। उनके गुणों का वर्णन करता हूँ। विप्रवर! पृथ्वी में पांच गुण हैं, जल चार गुणों से युक्त है, तेज में तीन गुण होते हैं, वायु में दो और आकाश में एक गुण है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध- ये भूमि के पांच गुण हैं। इस प्रकार भूमि अन्य सब भूतों की अपेक्षा अधिक गुणवती है। द्विजश्रेष्ठ! शब्द, स्पर्श, रूप और रस-ये चार जल के गुण हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण! इनका वर्णन पहले भी आपसे किया गया है। शब्द, स्पर्श तथा रूप-ये तेज के तीन गुण हैं, शब्द और स्पर्श-ये दो गुण वायु के हैं तथा आकाश में एक ही गुण है-शब्द। ब्रह्मन्! इस प्रकार पांचों भूतों में ये पंद्रह गुण बताये गये हैं। इन्हीं में सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। विप्रवर! ये पांच भूत एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। परस्पर मिलकर ही भली-भाँति प्रकाशित होते हैं। जिस समय व्यक्त और अव्यक्त पांचों भूत विषयभाव को प्राप्त होते हैं, उस समय यह जीव काल की प्रेरणा से अपने संकल्पानुसार दूसरे शरीर को प्राप्त हो जाता है। ये पांचों भूत मृत्युकाल में प्रतिलोम क्रम से विलीन हो जाते हैं और उत्पति काल में अनुलोम क्रम से उत्पन्न होते हैं। विभिन्न शरीरों में जितने रक्त आदि धातु दिखायी देते हैं, वे सब पांच भूतों के ही परिणाम हैं, जिनसे यह समस्त चराचर जगत् व्याप्त है। बाह्य इन्द्रियों से जिस-जिसका संसर्ग होता है, वह-वह व्यक्त माना गया है; परंतु जो विषय इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है, केवल अनुमान से जाना जाता है, उसे अव्यक्त समझना चाहिये। अपने-अपने विषयों का अतिक्रमण न करके इन शब्द आदि विषयों को ग्रहण करने वाली इन इन्द्रियों को जब आत्मा अपने वश में करता है, तब मानो वह तपस्या करता है। वह सम्पूर्ण लोकों में अपने को व्याप्त और अपने में सम्पूर्ण लोकों को स्थित देखता है। इस प्रकार जो निर्गुण ब्रह्म को जानने वाला समर्थ ज्ञानी पुरुष है, वह सम्पूर्ण भूतों को आत्मरूप से देखता है। सब अवस्थाओं में सदा समस्त भूतों को आत्मरूप से देखने वाले उस ब्रह्मस्वरूप ज्ञानी का कभी भी अशुभ कर्मों से सम्पर्क होना सम्भव नहीं है। उस (पूर्वोक्त) अज्ञानजनित क्लेश से जो पार हो गया है, उस महापुरुष का प्रभाव उसके द्वारा की जाने वाली लौकिक चेष्टाओं से ज्ञानमार्ग के द्वारा जाना जा सकता है। बुद्धिमान भगवान ब्रह्मा ने (अपने नि:श्वावास भूत वेदों के द्वारा) मुक्त जीव को आदि-अन्त से रहित, स्वयम्भू, अविकारी, अनुपम तथा निराकार बताया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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