महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-19

एकत्रिंश (31) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तान्त

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर ने नारद जी से कहा- ‘भगवन्! मैं सुवर्णष्ठीवी के जन्म का वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ’। धर्मराज के ऐसा कहने पर नारद मुनि ने सुवर्णष्ठीवी के जन्म का यथावत् वृत्तान्त कहना आरम्भ किया।

नारद जी बोले- महाबाहो! भगवान् श्रीकृष्ण ने इस विषय में जैसा कहा है, यह सब सत्य है। इस प्रसंग में जो कुछ शेष है, वह तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैं बता रहा हूँ। मैं और मेरे भानजे महामुनि पर्वत दोनों विजयी वीरों में श्रेष्ठ राजा सृंजय के यहाँ निवास करने के लिये गये।। वहाँ राजा ने हम दोनों का शास्त्रीय विधि के अनुसार पूजन किया और हमारे लिये सभी मनोवान्छित वस्तुओं के प्राप्त होने की सुव्यवस्था कर दी। हम दोनों उनके महल में रहने लगे। जब वर्षा के चार महीने बीत गये और हम लोगों के वहाँ से चलने का समय आया, तब पर्वत ने मुझसे समयोचित एवं सार्थकवचन कहा- ‘मामा! हम लोग राजा सृंजय के घर में बड़े आदर सत्कार के साथ रहे हैं, अतः ब्रह्मन्! इस समय इनका कुछ उपकार करने की बात सोचिये’। राजन्! तब मैंने शुभदर्शी पर्वत मुनि से कहा- ‘भगिनीपुत्र! यह सब तुम्हें ही शोभा देता है। राजा को मनोवान्छित वर देकर संतुष्ट करो। वे जो-जो चाहते हैं, वह सब उन्हें मिले। तुम्हारी राय हो तो हम दोनों की तपस्या से उनके मनोरथ की सिद्धि हो’।

कुरुश्रेष्ठ! तब मेरी अनुमति ले पर्वत ने विजयी वीरों में श्रेष्ठ राजा सृंजय को बुलाकर कहा- नरेश्वर! हम दोनों तुम्हारे द्वारा सरलतापूर्वक किये गये सत्कार से बहुत प्रसन्न हैं। हम तुम्हें आज्ञा देते हैं कि तुम इच्छानुसार कोई वर सोचकर माँग लो। महाराज! कोई ऐसा वर माँग लो, जिससे न तो देवताओं की हिंसा हो और न मनुष्यों का संहार ही हो सके। तुम हमारी दृष्टि में आदर के योग्य हो’।

सृंजय ने कहा- ब्रह्मन्! यदि आप दोनों प्रसन्न हैं तो मैं इतने से ही कृतकृत्य हो गया। यही हमारे लिये महान् फलदायक परम लाभ सिद्ध हो गया। राजन्! ऐसा बात कहने वाले राजा सृंजय से पर्वत मुनि ने फिर कहा- ‘राजन्! तुम्हारे हृदय में जो चिरकाल से संकल्प हो, वही माँग लो’।

सृंजय बोले- भगवन्! मैं एक ऐसा पुत्र पाना चाहता हूँ, जो वीर, बलवान्, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाला, आयुष्मान्, परम सौभाग्यशाली और देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी हो।

पर्वत ने कहा- राजन्! तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण होगा, परंतु वह पुत्र दीर्घायु नहीं हो सकेगा; क्योंकि देवराज इन्द्र को पराजित करने के लिये तुम्हारे हृदय में यह संकल्प उठा है। तुम्हारा वह पुत्र सुवर्णष्ठीवी के नाम से विख्यात तथा देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी होगा। तुम्हें देवराज से सदा उसकी रक्षा करनी चाहिये। महात्मा पर्वत का यह वचन सुनकर सृंजय ने उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करते हुए कहा- ‘ऐसा न हो। मुने! आपकी तपस्या से मेरा पुत्र दीर्घजीवी होना चाहिये।’ परंतु इन्द्र का ख्याल करके पर्वत मुनि कुछ नहीं बोले।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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