महाभारत वन पर्व अध्याय 146 श्लोक 1-20

षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


भीमसेन का सौगन्धिक कमल लाने के लिये जाना और कदलीवन में उनकी हनुमान जी से भेंट

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वे पुरुषसिंह वीर पाण्डव अर्जुन के दर्शन के लिये उत्सुक हो वहाँ परम पवित्रता के साथ छः रात रहे। तदनन्तर ईशान कोण की ओर से अकस्मात् वायु चली। उसने सूर्य के समान तेजस्वी एक दिव्य सहस्र दल कमल लाकर वहाँ डाल दिया। जनमेजय! वह कमल बड़ा मनोरम था, उससे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी। शुभलक्षणा द्रौपदी ने उसे देखा और वायु के द्वारा लाकर पृथ्वी पर डाले हुए उस पवित्र, शुभ और परम उत्‍तम सौगन्धिक कमल के पास पहुँचकर अत्यन्त प्रसन्न हो भीमसेन से इस प्रकार कहा- 'भीम! देखो तो, यह दिव्य पुष्प कितना अच्छा और कैसा सुन्दर है। मानो सुगन्ध ही इसका स्वरूप है। यह मेरे मन को पसन्द कर रहा है। परंतप! मैं इसे धर्मराज को भेंट करूंगी। तुम मेरी इच्छा की पूर्ति के लिये काम्यकवन के आश्रम में इसे ले चलो। कुन्तीनन्दन! यदि मेरे ऊपर तुम्हारा विशेष प्रेम है, तो मेरे लिये ही बहुत-से फूल ले आओ। मैं इन्हें काम्यकवन में अपने आश्रम पर ले चलना चाहती हूँ।'

उस समय मनोहर नेत्र प्रान्त वाली अनिन्द्य सुन्दरी सती-साध्वी द्रौपदी ने भीमसेन से ऐसा कहकर और वह पुष्प लेकर धर्मराज युधिष्ठिर को देने के लिये चली गयी। पुरुषशिरोमणि महाबली भीम अपनी प्यारी रानी के मनोभाव को जानकर उसका प्रिय करने की इच्छा से वहां से चल दिये। वे उसी तरह के और भी फूल ले आने की अभिलाषा से तुरंत पूर्वोक्त वायु की ओर मुख करके उसी ईशान कोण में आगे बढ़े, जिधर से वह फूल आया था। उन्होंने हाथ में वह अपना धनुष ले लिया, जिसके पृष्ठभाग में सुवर्ण जड़ा हुआ था। साथ ही विषधर सर्पों के समान भयंकर बाण भी तरकस में रख लिये। फिर क्रोध में भरे हुए सिंह तथा मद की धारा बहाने वाले मतवाले गजराज की भाँति निर्भय होकर आगे बढ़े। महान् धनुष-बाण लेकर जाते हुए भीमसेन को उस समय सब प्राणियों ने देखा। उन वायुपुत्र कुन्तीकुमार को कभी ग्लानि, विकलता, भय अथवा घबराहट नहीं होती थी।

द्रौपदी का प्रिय करने की इच्छा से अपने बाहुबल का भरोसा करके भय और मोह से रहित बलवान् भीमसेन सामने के शैल-शिखर पर चढ़ गये। वह पर्वत वृक्षों, लताओं और झाड़ियों से आच्छादित था। उसकी शिलाएं नीले रंग की थीं। वहाँ किन्नर लोग भ्रमण करते थे। शत्रुसंहारी भीमसेन उस सुन्दर पर्वत पर विचरने लगे। बहुरंगे धातुओं, वृक्षों, मृगों और पक्षियों से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। वह देखने में ऐसा जान पड़ता था, मानो पृथ्वी के समस्त आभूषण से विभूषित ऊँचे उठी हुई भुजा हो। गन्धमादन के शिखर सब ओर से रमणीय थे। वहाँ कोयल पक्षियों की शब्दध्वनि हो रही थी और झुड-के-झुंड भौंरे मंडरा रहे थे। भीमसेन उन्हीं में आंखें गड़ाये मन-ही-मन अभिलषित कार्य का चिन्तन करते जाते थे।

अमित पराक्रमी भीम के कान, नेत्र और मन उन्हीं शिखरों में अटके रहे अर्थात् उनके कान वहां के विचित्र शब्दों को सुनने में लग गये; आंखें वहां के अद्भुत दृश्यों को निहारने लगीं और मन वहां की अलौकिक विशेषता के विषय में सोचने लगा और वे अपने गन्तव्य स्थान की ओर अग्रसर होते चले गये। वे महातेजस्वी कुन्तीकुमार सभी ऋतुओं के फूलों के उत्कट सुगन्ध का आस्वादन करते हुए वन में उद्दाम गति से विचरने वाले मदोन्मत्त गजराज की भाँति जा रहे थे। नाना प्रकार के कुसुमों से सुवासित गन्धमादन की परम पवित्र वायु उन्हें पंखा झल रही थी। जैसे पिता को पुत्र का स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है, वैसा ही सुख भीमसेन को उस पर्वतीय वायु के स्पर्श से मिल रहा था। उनके पिता पवन देव उनकी सारी थकावट हर लेते थे। उस समय हर्षातिरेक से भीम के शरीर में रोमांच हो रहा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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