एकपंचाशदधिकशततम (151) अध्याय: आदि पर्व (हिडिम्बवध पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जहाँ पाण्डव कुन्तीसहित सो रहे थे, उस वन से थोड़ी दूर पर एक शाल-वृक्ष का आश्रय ले हिडिम्ब नामक राक्षस रहता था। वह बड़ा क्रुर और मनुष्यमांस खाने वाला था। उसका बल और पराक्रम महान था। वह वर्षाकाल के मेघ की भाँति काला था। उसकी आंखे भूरे रंग की थीं और आकृति से क्रूरता टपक रही थी। उसका मुख बड़ी-बड़ी दाढ़ों के कारण विकराल दिखायी देता था। वह भूख से पीड़ित था और मांस मिलने की आशा में बैठा था। उसके नितम्ब और पेट लम्बे थे। दाढ़ी, मूंछ और सिर के बाल लाल रंग के थे। उसका गला और कंधे महान् वृक्ष के समान जान पड़ते थे। दोनों कान भाले के समान लम्बे और नुकीले थे। वह देखने में बड़ा भयानक था। दैवेच्छा से उसकी दृष्टि उन महारथी पाण्डवों पर पड़ी। बेडौल रुप तथा भूरी आंखों वाला वह विकराल राक्षस देखने में बड़ा डरावना था। भूख से व्याकुल होकर वह कच्चा मांस खाना चाहता था। उसने अकस्मात् पाण्डवों को देख लिया। तब अगुलियों को उपर उठाकर सिर के रुप से बालों को खुजलाता और फटकारता हुआ वह विशाल मुख वाला राक्षस पाण्डवों की ओर बार-बार देखकर जंभाई लेने लगा। मनुष्य का मांस मिलने की सम्भावना से उसे बड़ा हर्ष हुआ। उस महाबली विशालकाय राक्षस ने मनुष्य की गन्ध पाकर अपनी बहिन से इस प्रकार कहा- ‘आज बहुत दिनों के बाद ऐसा भोजन मिला हैं, जो मुझे बहुत प्रिय है। इस समय मेरी जीभ लार ठपका रही है और बड़े सुख से लप-लप कर रही है। आज मैं अपनी आठों दाढ़ों को, जिनके अग्रभाग बड़े तीखे हैं और जिनकी चोट प्रारम्भ से ही अत्यन्त दु:सह होती हैं, दीर्घकाल के पश्चात मनुष्यों के शरीरों और चिकने मांस में दुबाउंगा। मैं मनुष्य की गर्दन पर चढ़कर उसकी नाड़ियों को काट दूंगा और उसका गरम-गरम, फेनयुक्त तथा ताजा खून खून छककर पीऊँगा। बहिन! जाओ, पता तो लगाओ, ये कौन इस वन में आकर सो रहे हैं? मनुष्य की तीव्र गन्ध आज मेरी नासिका को मानो तृप्त किये देती हैं। तुम इन सब मनुष्यों को मारकर मेरे पास ले आओ। वे हमारी हद में सो रहे हैं, (इसीलिये) इनसे तुम्हें तनिक भी खटका नहीं है। फिर हम दोनों एक साथ बैठकर इन मनुष्यों के मांस नोच-नोचकर जी-भर खायेंगे। तुम मेरी इस आज्ञा का तुरंत पालन करो। इच्छानुसार मनुष्य मांस लाकर हम दोनों ताल देते हुए साथ-साथ अनेक प्रकार के नृत्य करें। भरतश्रेष्ठ! उस समय वन में हिडिम्ब के यों कहने पर हिडिम्बा अपने भाई की बात मानकर मानो बड़ी उतावली के साथ उस स्थान पर गयी, जहाँ पाण्डव को सोते और किसी से परास्त न होने वाले भीमसेन को जागते देखा। धरती पर उगे हुए साखू के पौधे की भाँति मनोहर भीमसेन को देखते ही वह राक्षसी (मुग्ध हों) उन्हें चाहने लगी। इस पृथ्वी पर वे अनुपम रुपवान् थे। (उसने मन-ही-मन सोचा) इन श्यामसुन्दर तरुण वीर की भुजाएं बड़ी-बड़ी हैं, कंधे सिंह-के-से हैं, ये महान् तेजस्वी हैं, इनकी ग्रीवा शंख के समान सुन्दर और नेत्र कमल दल के सद्दश विशाल हैं। ये मेरे लिये उपयुक्त पति हो सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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