महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-7

एकोनत्रिश (29) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनत्रिश अध्याय: श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद

सांख्‍ययोग, निष्‍काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तिसहित ध्‍यानयोग का वर्णन

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 5

संबंध- गीता के तीसरे और चौथे अध्‍याय में अर्जुन ने भगवान् के श्रीमुख से अनेकों प्रकार से कर्मयोग की प्रशंसासुनी और उसके सम्‍पादन की प्रेरणा तथा आज्ञा प्राप्‍त की। साथ ही वह भी सुना कि ‘कर्मयोग के द्वारा भगवत्‍स्‍वरूप का तत्त्‍वज्ञान अपने-आप ही हो जाता है[1]; गीता के चौथे अध्‍याय के अंत में भी उन्‍हें भगवान् के द्वारा कर्मयोग के सम्‍पादन की ही आज्ञा मिली। परंतु बीच-बीच में उन्‍होंने भवगान् के श्रीमुख से ही ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवि:[2]’ ‘ब्रह्माग्रावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति[3], ‘तद् विद्धि प्रणिपातेन[4]’ आदि वचनों द्वारा ज्ञानयोग अर्थात् कर्मसंन्‍यास की भी प्रशंसा सुनी। इससे अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेष्ठ है। अतएव अब भगवान् के श्रीमुख से ही उसका निर्णय कराने के उद्देश्‍य से अर्जुन उनसे प्रश्‍न करते हैं- अर्जुन बोले- हे कृष्‍ण! आप कर्मों के संन्‍यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। इसलिये इन दोनों में से जो एक मेरे लिये भलीभाँति निश्चित कल्‍याणकारक साधन हो, उसको कहिये[5]

श्रीभगवान् बोले- कर्मसन्‍ंयास[6] और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्‍याण के करने वाले हैं, परंतु उन दोनों में भी कर्मसंन्‍यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।[7] हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्‍यासी ही समझने योग्‍य है;[8] क्‍योंकि राग-द्वेषादि द्वन्‍द्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्‍त हो जाता है। उपर्युक्‍त संन्‍यास और कर्मयोग को मूर्ख लोग पृथक्-पृथक् फल देने वाले कहते हैं न कि पण्डितजन, क्‍योंकि दोनों में से एक में भी सम्‍यक् प्रकार से स्थित पुरुष दोनों के फलरूप परमात्‍मा को प्राप्‍त होता है।[9] ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्‍त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्‍त किया जाता है।[10]

इसलिये जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है। परंतु हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्‍यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्‍पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्‍याग प्राप्‍त होना कठिन है[11] और भगवत्‍स्‍वरूप को मन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्‍मा को शीघ्र ही प्राप्‍त हो जाता है।[12] जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्त:करण वाला हैं[13] और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 4। 38
  2. गीता 4।24
  3. गीता 4।25
  4. गीता 4।34
  5. सम्‍पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर ऐसा समझना कि गुण ही गुणों में बरह रहे हैं, (गीता 3।28) तथा निरंतर परमात्‍मा के स्‍वरूप में एकीभाव से स्थित रहना और सर्वदा सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि रखना (गीता 4।24)’- यही ज्ञानयोग है- यही कर्मसंन्‍यास है। गीता के चौथे अध्‍याय में इसी प्रकार के ज्ञानयोग की प्रशंसा की गयी है और उसी के आधार पर अर्जुन का यह प्रश्‍न है।
  6. मन, वाणी और शरीर द्वारा होने वाली सम्‍पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान का और शरीर तथा समस्‍त संसार में अहंता-ममता का पूर्णतया त्‍याग ही ‘संन्‍यास’ शब्‍द का अर्थ है। चौथे और पांचवे श्‍लोकों में ‘संन्‍यास’ को ही ‘सांख्‍य’ कहकर भलीभाँति स्‍पष्‍टीकरण भी कर दिया है। अतएव यहाँ ‘संन्‍यास’ शब्‍द का अर्थ ‘सांख्‍यायोग’ ही मानना युक्‍त है।
  7. कर्मयोगी कर्म करते हुए भी सदा संन्‍यासी ही है, वह सुखपूर्वक अनायास ही संसारबंधन से छूट जाता है। (गीता 5।3) उसे शीघ्र ही परमात्‍मा की प्राप्ति हो जाती है। (गीता 5।6) प्रत्‍येक अवस्‍था में भगवान उसकी रक्षा करते हैं (गीता 1।22) और कर्मयोग का थोड़ा-सा भी साधन जन्‍म-मरणरूप महान भय से उद्धार कर देता है। (गीता 2।40) किंतु ज्ञानयोग का साधन क्‍लेशयुक्‍त है (गीता 12।5), पहले कर्मयोग का साधन किये बिना उसका होना भी कठिन है। (गीता 6।6) इन्‍हीं सब कारणों से ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ बतलाया गया है।
  8. कर्मयोगी न किसी से द्वेष करता है ओर न किसी वस्तु की आकांक्षा करता है, वह द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो जाता है। वास्तव में संन्यास भी इसी स्थिति का नाम है। जो राग-द्वेष से रहित हैं, वही सच्चा संन्यासी है; क्योंकि उसे न तो संन्यास-आश्रम ग्रहण करने की आवश्‍यकता है और न सांख्‍ययोग की ही। अतएव यहाँ कर्मयोगी को ‘नित्यसंन्यासी’ कहकर भगवान् उसका महत्त्व प्रकट करते हैं कि समस्त कर्म करते हुए भी वह सदा संन्यासी ही है और सुखपूर्वक अनायास ही कर्मबन्धन से छूट जाता है।
  9. ’सांख्‍ययोग’ और ‘कर्मयोग’ दोनों ही परमार्थतत्त्व के ज्ञान द्वारा परमपदरूप कल्याण की प्राप्ति में हेतु है। इस प्रकार दोनों का फल एक होने पर भी जो लोग कर्मयोग का दूसरा फल मानते हैं और सांख्‍ययोग का दूसरा, वे फलभेद की कल्पना करके दोनों साधनों को पृथक्-पृथक् मानने वाले लोग बालक है; क्योंकि दोनों की साधनप्रणाली में भेद होने पर भी फल में एकता होने के कारण वस्तुत: दोनों में एकता ही हैं। दोनों निष्‍ठाओं का फल एक ही हैं, अतएव यह कहना उचित ही है कि एक में पूर्णतया स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। गीता के तेरहवें अध्‍याय के चौबीसवें श्‍लोक में भी भगवान् ने दोनों को ही आत्मसाक्षात्कार के स्वतन्त्र साधन माना हैं।
  10. जैसे किसी मनुष्‍य को भारतवर्ष से अमेरिका को जाना है, तो वह यदि ठीक रास्ते से होकर यहाँ से पूर्व-ही-पूर्व दिशा में जाता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा और पश्चिम-ही-पश्चिम की ओर चलता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा। वैसे ही सांख्‍ययोग और कर्मयोग की साधनप्रणाली में परस्पर भेद होने पर भी जो मनुष्‍य किसी एक साधन में दृढ़तापूर्वक लगा रहता है, वह दोनों के ही एकमात्र परम लक्ष्‍य परमात्मा तक पहुँच ही जाता है।
  11. जो मुमुक्ष पुरुष यह मानता है कि ‘समस्त दृश्‍य-जग् स्वपन्न के सदृश मिथ्‍या है, एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है; यह सारा प्रपञ्च माया से उसी ब्रह्म में अध्‍यारोपित है, वस्तुत: दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं;’ परंतु उसका अन्त:करण शुद्ध नहीं है, उसमें राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादि दोष वर्तमान हैं, वह यदि अन्त:करण की शुद्धि के लिये कर्मयोग का आचरण न करके केवल अपनी मान्यता के भरोसे पर ही सांख्‍ययोग के साधन में लगना चाहेगा तो उसे ‘सांख्‍यनिष्‍ठा’ सहज ही नहीं प्राप्त हो सकेगी।
  12. जो सब कुछ भगवान् का समझकर सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखते हुए आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके भगवदाज्ञानुसार समस्त कर्तव्यकर्मों का आचरण करता है और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नाम, गुण और प्रभावसहित श्रीभगवान् के स्वरूप चिन्तन करता हैं, वह भक्तियुक्त कर्मयोग का साधक मुनि भगवान् की दया से परमार्थज्ञान के द्वारा शीघ्र ही परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैं।
  13. मन और इन्द्रियां यदि साधक के वश में न हो तो उनकी स्वाभाविक ही विषयों में प्रवृत्ति होती हैं और अन्त:करण में जब तक राग-द्वेषादि मल रहता है, तब तक सिद्धि और असिद्धि में समभाव रहना कठिन होता है। अतएव जब तक मन और इन्द्रियां भलीभाँति वश में न हो जायं और अन्त:करण पूर्णरूप से परिशुद्ध न हो जाय, तब तक साधक को वास्तविक कर्मयोगी नहीं कहा जा सकता। इसीलिये यह कहा गया है कि जिसमें ये सब बातें ही वहीं पूर्ण कर्मयोगी है और उसी को शीघ्र ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

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