चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वह सदा ही पति के प्रिय एवं हित में तत्पर रहती थी। जिसको ऐसी पत्नी प्राप्त हुई हो, वह पुरुष इस पृथ्वी पर धन्य है। ‘वह तपस्विनी यह जानती है कि मैं थका, मांदा और भूख से पीड़ित हूं, सो भी न जाने क्यों नहीं आ रही है? मेरे प्रति उसका अत्यन्त अनुराग है, उसकी बुदि स्थिर है, वह यशस्विनी भार्या मेरे प्रति स्नेह रखने वाली तथा मेरी परम भक्त है। ‘वृक्ष के नीचे भी जिसकी पत्नी साथ हो, उसके लिये वही घर है और बहुत बड़ी अट्टालिका भी यदि स्त्री से रहित है तो वह निश्चय ही दुर्गम गहन वन के समान है। ‘पूरूष के धर्म, अर्थ और काम के अवसरों पर उसकी पत्नी ही उसकी मुख्य सहायिका होती है। परदेश जाने पर भी वही उसके लिये विश्वसनीय मित्र का काम करती है। ‘पुरुष की प्रधान सम्पत्ति उसकी पत्नी ही कही जाती है। इस लोक में जो असहाय है, उसे भी लोक-यात्रा में सहायता देने वाली उसकी पत्नी ही है। ‘जो पुरुष रोग से पीड़ित हो और बहुत दिनों से विपत्ति में फंसा हो, उस पीड़ित मनुष्य के लिये भी स्त्री के समान दूसरी कोई ओषधि नहीं है। ‘संसार में स्त्री के समान कोई बन्धु नहीं है, स्त्री के समान कोई आश्रय नहीं है और स्त्री के समान धर्मसंग्रह में सहायक भी दूसरा कोई नहीं है। ‘जिसके घर में साघ्वी और प्रिय वचन बोलने-वाली भार्या नहीं है, उसे तो वन में चला जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये जैसा घर है, वैसा ही वन’। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में पत्नी की प्रशंसाविषयक एक सौ चौवालिसवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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