सप्तदशाधिकद्विशततम (217) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का कथन तथा परमात्म प्राप्ति के अन्य साधनों का भी वर्णन भीष्म जी कहते हैं- राजन! जो मनुष्य सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग तथा प्रकृति और पुरुष इन चारों को नहीं जानता है, वह परब्रह्म परमात्मा को नहीं जानता है। परम ऋषि नारायण ने जिस व्यक्त और अव्यक्त तत्त्व का प्रतिपादन किया है, उसमें व्यक्त (दृश्यवर्ग) को मृत्यु के मुख में पड़ने वाला जाने और अव्यक्त को अमृतपद समझे तथा नारायण ऋषि ने जिस प्रवृत्तिरूप धर्म का प्रतिपादन किया है, उसी पर चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी प्रतिष्ठित है। निवृत्तिरूप जो धर्म है, वह अव्यक्त सनातन ब्रह्मस्वरूप है। प्रजापति ब्रह्मा जी ने प्रवृत्तिरूप धर्म का उपदेश दिया है; परंतु प्रवृत्तिरूप धर्म पुनरावृत्ति का कारण है। उसके आचरण से संसार में बारंबार जन्म लेना पड़ता है और निवृत्तिरूप धर्म परमगति की प्राप्ति कराने वाला है। जो सदा ज्ञानतत्त्व के चिन्तन में संलग्न रहने वाला, शुभ और अशुभ को (ज्ञान नेत्रों के द्वारा तत्त्व से) देखने वाला तथा निवृत्ति परायण मुनि है, वही उस परमगति को प्राप्त होता है। इस प्रकार विचारशील पुरुष को चाहिये कि वह पहले अव्यक्त[1] (प्रकृति) और पुरुष (जीवात्मा) इन दोनों का ज्ञान प्राप्त करे; फिर इन दोनों से श्रेष्ठ जो परम महान पुरुषोतम तत्त्व है, उसका विशेषरूप से ज्ञान प्राप्त करे। ये प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) दोनों ही अनादि और अनन्त हैं[2] दोनों ही अलिंग निराकार हैं तथा दोनों ही नित्य, अविचल और महान से भी महान हैं। ये सब बातें इन दोनों में समानरूप से पायी जाती हैं; परंतु इनमें जो अन्तर या वैलक्षण्य है, वह दूसरा ही है, जिसे बताया जाता है। प्रकृति त्रिगुणमयी है। ब्रह्म के सकाश से सृष्टि करना उसका सहज धर्म है, किंतु क्षेत्रज्ञ अथवा पुरुष के स्वरूप को प्रकृति से सर्वथा विपरीत (विलक्षण) जानना चाहिये। वह स्वयं गुणों से रहित तथा प्रकृति के विकारों (कार्यों) का द्रष्टा है। ये दोनों प्रकृति और पुरुष सम्पूर्णत: इन्द्रियों के विषय नहीं हैं। दोनों ही आकार रहित तथा एक-दूसरे विलक्षण हैं। प्रकृति और पुरुष के संयोग से चराचर जगत की उत्पत्ति होती है, जो कर्म से ही जानी जाती है। जीव मन-इन्द्रियों द्वारा कर्म करता है। वह जिस-जिस कर्म को करता है, उस-उस का कर्ता कहलाता है। ‘कौन’ ‘मैं’ ‘यह’ और ‘वह’ इन शब्दों एवं संज्ञाओं द्वारा उसी का वर्णन किया जाता है। जैसे पगड़ी बाँधने वाला पुरुष तीन वस्त्रों (पगड़ी, ऊर्ध्ववस्त्र, अधोवस्त्र) से परिवेष्टित होता है, उसी प्रकार यह देहाभिमानी जीव सत्त्व, रज और तम तीन गुणों से आवृत होता है। अत: इन्हीं हेतुओं से आवृत हुई इन चार वस्तुओं (सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग, प्रकृति और पुरुष) को जानना चाहिये। इन्हें भलीभाँति तत्त्व से जान लेने पर मनुष्य मृत्यु के समय मोह में नहीं पड़ता है। जो दिव्य सम्पत्ति अर्थात ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहे, उस देहधारी पुरुष को अपना मन शुद्ध रखना चाहिये और शरीर से कठोर नियमों का पालन करते हुए निर्दोष तप का अनुष्ठान करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इससे पूर्व पहले, दूसरे और तीसरे श्लोकों में ‘अव्यक्त‘ शब्द परमात्मा का वाचक है और यहाँ ‘अव्यक्त’ शब्द प्रकृति का वाचक समझना चाहिये।
- ↑ प्रकृति प्रवाहरूप से अनादि और अनन्त है तथा पुरुष (जीवात्मा) स्वरूप से।
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