महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 118 श्लोक 1-21

अष्टादशाधिकशततम (118) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

उशीनर का ययाति कन्या माधवी के गर्भ से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना, गालव का उस कन्या को साथ लेकर जाना और मार्ग में गरुड़ का दर्शन करना

  • नारदजी कहते हैं- तदन्तर वह यशस्विनी राजकन्या माधवी सत्य के पालन में तत्पर हो काशी नरेश की उस राजलक्ष्मी को त्यागकर विप्रवर गालव के साथ चली गयी। (1)
  • गालव का मन अपने कार्य की सिद्धि के चिंतन में लगाया। उन्होंने मन ही मन कुछ सोचते हुए राजा उशीनर से मिलने के लिए भोजनगर की यात्रा की। (2)
  • उन सत्यपराक्रमी नरेश के पास जाकर गालव ने उन से कहा- ‘राजन! यह कन्या आपके लिए पृथ्वी का शासन करने में समर्थ दो पुत्र उत्पन्न करेगी। (3)
  • ‘नरेश्वर! इसके गर्भ से सूर्य और चंद्रमा के समान दो तेजस्वी पुत्र पैदा करके आप लोक और परलोक में भी पूर्णकाम होंगे। (4)
  • समस्त धर्मों के ज्ञाता भूपाल! आप इस कन्या के शुल्क के रूप में मुझे ऐसे चार सौ अश्व प्रदान करें, जो चंद्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति से सुशोभित तथा एक ओर से श्यामवर्ण के कानों वाले हों। (5)
  • ‘मैंने गुरुदक्षिणा देने के लिए यह उद्योग आरंभ किया है अन्यथा मुझे इन घोड़ों की कोई आवश्यकता नहीं है। महाराज! यदि आपके लिए यह शुल्क देना संभव हो तो कोई अन्यथा विचार न करके यह कार्य सम्पन्न कीजिये। (6)
  • ‘राजर्षे! पृथ्वीपते! आप संतानहीन हैं। अत: इससे दो पुत्र उत्पन्न कीजिये और पुत्ररूपी नौका द्वारा पितरों का तथा अपना भी उद्धार कीजिये। (7)
  • ‘राजर्षे! पुत्रजनित पुण्यफल का उपभोग करने वाला मनुष्य कभी स्वर्ग से नीचे नहीं गिराया जाता और संतानहीन मनुष्य जिस प्रकार घोर नरक में पड़ते हैं, उस प्रकार वह नहीं पड़ता।' (8)
  • गालव की कही हुई ये तथा और भी बहुत सी बातें सुनकर राजा उशीनर ने उन्हें इस प्रकार से उत्तर दिया- (9)
  • ‘विप्रवर गालव! आप जैसा कहते हैं, वे सब बातें मैंने सुन लीं। परंतु विधाता प्रबल है। मेरा मन इससे संतान उत्पन्न करने के लिए उत्सुक हो रहा है। (10)
  • ‘द्विजश्रेष्ठ! आपको जिनकी आवश्यकता है, ऐसे अश्व तो मेरे पास दो सौ ही हैं। दूसरी जाति के तो कई सहस्र घोड़े मेरे यहाँ विचरते हैं। (11)
  • ‘अत: ब्रह्मर्षि गालव! मैं भी इस कन्या के गर्भ से एक ही पुत्र उत्पन्न करूँगा। दूसरे लोग जिस मार्ग पर चले हैं, उसी पर मैं भी चलूँगा। (12)
  • ‘द्विजप्रवर! मैं घोड़ों का मूल्य देकर आपका सारा शुल्क चुका दूँ, यह भी संभव नहीं है; क्योंकि मेरा धन पुरवासियों तथा जनपद निवासियों के लिए है, अपने उपभोग में लाने के लिए नहीं। (13)
  • ‘धर्मात्मन! जो राजा पराये धन का अपनी इच्छा के अनुसार दान करता है, उसे धर्म और यश की प्राप्ति नहीं होती है। (14)
  • ‘अत: आप देवकन्या के समान सुंदरी इस राजकुमारी को केवल एक पुत्र उत्पन्न करने के लिए मुझे दें। मैं इसे ग्रहण करूँगा।' (15)
  • इस प्रकार भाँति-भाँति की न्याययुक्त बातें कहने वाले राजा उशीनर की विप्रवर गालव ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। (16)
  • उशीनर को वह कन्या सौंपकर गालव मुनि वन को चले गए। जैसे पुण्यात्मा पुरुष राजयलक्ष्मी को प्राप्त करे, उसी प्रकार उस राजकन्या को पाकर राजा उशीनर उसके साथ रमण करने लगे। (17)
  • उन्होंने पर्वतों की कन्दराओं में, नदियों के सुरम्य तटों पर, झरनों के आस-पास, विचित्र उद्धयानों में, वनों और उपवनों में, रमणीय अट्टालिकाओं में, प्रासादशिखरों पर, वायु के मार्ग से उड़ने वाले विमानों पर तथा पृथ्वी के भीतर बने हुए गर्भगृहों में माधवी के साथ विहार किया। (18-19)
  • तदनन्तर यथासमय उसके गर्भ से राजा को एक पुत्र प्राप्त हुआ, जो बालसूर्य के समान तेजस्वी था। वही बड़ा होने पर नृपश्रेष्ठ महाराज शिबि के नाम से विख्यात हुआ। (20)
  • राजन! तत्पश्चात विप्रवर गालव राजा के दरबार में उपस्थित हुए और उस कन्या को वापस लेकर वहाँ से चल दिये। मार्ग में उन्हें विनतानन्दन गरुड़ दिखाई दिये। (21)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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