महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-18

त्रिंश (30) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का घोर युद्ध, प्रतर्दन द्वारा उनका वध और राजा वीतहव्य को भृगु के कथन से ब्राह्मणत्व प्राप्त होने की कथा

युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुकुल में उत्पन्न! वक्ताओं में श्रेष्ठ पितामह! आपके मुख से यह महान उपाख्यान मैंने सुन लिया। आप कह रहे हैं कि अन्य वर्णों के लिये इसी शरीर से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति बहुत ही कठिन है। सत्पुरुषों में श्रेष्ठ पितामह! परंतु सुना जाता है कि पूर्वकाल में विश्वामित्र जी ने इसी शरीर से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया था और आप जो उसे सर्वथा दुर्लभ बता रहे हैं (ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध-सी जान पड़ती हैं)। मेरे सुनने में यह भी आया है कि राजा वीतहव्य क्षत्रिय ब्राह्मण हो गये थे। गंगानन्दन प्रभो! अब मैं पहले उसी प्रसंग को सुनना चाहता हूँ। वे नृपशिरोमणि वीतहव्य किस कर्म से, किस वर अथवा तपस्या से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए? यह मुझे विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें।

भीष्म जी ने कहा- राजन! महायशस्वी राजर्षि राजा वीतहव्य ने जिस प्रकार लोकसम्मानित दुर्लभ ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था, उसे बताता हूं, सनो। तात! पूर्वकाल में धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने वाले महामनस्वी राजा मनु के एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था शर्याति। विजयी वीरों में श्रेष्ठ नरेश! राजा शर्याति के वंश में दो राजा बड़े विख्यात हुए- हैहय और तालजंघ। ये दोनों ही राजा वत्स के पुत्र थे। भरतवंशी! राजेन्द्र! उन दोनों में हैहय के जिसका दूसरा नाम वीतहव्य भी था, दस स्त्रियाँ थीं। उन स्त्रियों के गर्भ से सौ शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए, जो युद्ध से पीछे हटने वाले नहीं थे। उन सबके रूप और प्रभाव एक समान थे, वे सभी बलवान तथा युद्ध में शोभा पाने वाले थे। उन्होंने धनुर्वेद और वेद के सभी विषयो में परिश्रम किया था।

उन्हीं दिनों काशी प्रान्त में हर्यश्व नाम के राजा राज्य करते थे, जो दिवोदास के पितामह थे। वे विजयशील वीरों में श्रेष्ठ समझे जाते थे। पुरुषप्रवर! वीतहव्य पुत्रों ने हर्यश्व के राज्य पर चढ़ाई की और उन्हें गंगा-यमुना के बीच युद्ध में मार गिराया। राजा हर्यश्व को मारकर वे महारथी हैहय राजकुमार निर्भय हो वत्सवंशी राजाओं की सुरम्य पुरी को लौट गये। हर्यश्व के पुत्र सुदेव जो देवता के तुल्य तेजस्वी और साक्षात दूसरे धर्मराज के समान न्यायशील थे, पिता के बाद काशीराज के पद पर अभिषिक्त किये गये। धर्मात्मा काशीनन्दन सुदेव धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करने लगे। इसी बीच में वीतहव्य के सभी पुत्रों ने आक्रमण करके युद्ध में उन्हें भी परास्त कर दिया। समरागंण में सुदेव को धराशायी करके वे हैहय राजकुमार जैसे आये थे वैसे लौट गये। तत्पश्चात सुदेव के पुत्र दिवोदास का काशीराज के पद पर अभिषेक किया गया।

दिवोदास बड़े तेजस्वी राजा थे। उन्होंने जब मन को वश में रखने वाले हैहय राजकुमारों के पराक्रम पर विचार किया, तब इन्द्र की आज्ञा से वाराणसी नाम वाली नगरी बसायी। वह पुरी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों से भरी हुई थी। नाना प्रकार के द्रव्यों के संग्रह से सम्पन्न थी तथा उसके बाज़ार-हाट और दूकानें धन-वैभव से भरपूर थीं। नृपश्रेष्ठ! उस नगरी के घेरे का एक छोर गंगा जी के उत्तर तट तक, दूसरा छोर गोमती के दक्षिण किनारे तक फैला हुआ था। वह नगरी इन्द्र की अमरावती पुरी के समान जान पड़ती थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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