महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 181 श्लोक 1-16

एकाशीत्यधिकशततम (181) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: एकाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

भीष्‍म और परशुराम का युद्ध

  • भीष्‍मजी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ! दूसरे दिन परशुरामजी के साथ भेंट होने पर पुन: अत्यन्त भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। (1)
  • फिर तो दिव्यास्त्रों के ज्ञाता, शूरवीर एवं धर्मात्मा भगवान परशुरामजी प्रतिदिन अनेक प्रकार के अलौकिक अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। (2)
  • भारत! उस तुमुल युद्ध में अपने दुस्त्यज प्राणों की परवा न करके मैंने उनके सभी अस्त्रों का विद्या त‍क अस्त्रों द्वारा संहार कर डाला। (3)
  • भरतनन्दन! इस प्रकार बार-बार मेरे अस्त्रों द्वारा अपने अस्त्रों के विनष्‍ट होने पर महातेजस्वी परशुरामजी उस युद्ध में प्राणों का मोह छोड़कर अत्यन्त कुपित हो उठे। (4)
  • इस प्रकार अपने अस्त्रों का अवरोध होने पर जमदग्निनन्दन महात्मा परशुराम ने काल की छोड़ी हुई प्रज्वलित उल्का-के समान एक भयंकर शक्ति छोड़ी, जिसका अग्रभाग उद्दीप्त हो रहा था। वह शक्ति अपने तेज से सम्पूर्ण लोक को व्याप्त किये हुए थी। (5)
  • तब मैंने प्रलयकाल के सूर्य की भाँति प्रज्वलित होने वाली उस देदीप्यमान शक्ति को अपनी ओर आती देख अनेक बाणों द्वारा उसके तीन टुकडे़ करके उसे भूमि पर गिरा दिया। फिर तो पवित्र सुगन्ध से युक्त मन्द-मन्द वायु चलने लगी। (6)
  • उस शक्ति के कट जाने पर परशुरामजी क्रोध से जल उठे तथा उन्होंने दूसरी-दूसरी भयंकर बारह शक्तियां और छोड़ीं। भारत! वे इतनी तेजस्विनी तथा शीघ्रगामिनी थीं कि उनके स्वरूप का वर्णन करना असम्भव है। (7)
  • प्रलयकाल के बारह सूर्यों के समान भयंकर तेज से प्रज्वलित अनेक रूपवाली तथा अग्नि की प्रचण्‍ड ज्वालाओं के समान धधकती हुई उन शक्तियों को सब ओर से आती देख मैं अत्यन्त विह्वल हो गया। (8)
  • राजन! तत्पश्‍चात वहाँ फैले हुए बाणमय जाल को देखकर मैंने अपने बाणसमूहों से उसे छिन्न-भिन्न कर डाला और उस रणभूमि में बारह सायकों का प्रयोग किया, जिनसे उन भयंकर शक्तियों को भी व्यर्थ कर दिया। (9)
  • राजन! तत्पश्‍चात महात्मा जमदग्निनन्दन परशुराम ने स्वर्णमय दण्‍ड से विभूषित और भी बहुत-सी भयानक शक्तियां चलायीं, जो विचित्र दिखायी देती थीं। उनके ऊपर सोने के पत्र जडे़ हुए थे और वे जलती हुई बड़ी-बड़ी उल्काओं के समान प्रतीत होती थीं। (10‌)
  • नरेन्द्र! उन भयंकर शक्तियों को भी मैंने ढाल से रोककर तलवार से रणभूमि में काट गिराया। तत्पश्‍चात परशुरामजी के दिव्य घोड़ों तथा सारथि पर मैंने दिव्य बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। (11)
  • केंचुलि से छूटकर निकले हुए सर्पों के समान आकृति वाली उन सुवर्णजटित विचित्र शक्तियों को कटी हुई देख हैहयराज का विनाश करने वाले महात्मा परशुरामजी ने कुपित होकर पुन: अपना दिव्य अस्त्र प्रकट किया। (12)
  • फिर तो टिड्डियों की पंक्तियों के समान प्रज्वलित एवं भयंकर बाणों के समूह प्रकट होने लगे। इस प्रकार उन्होंने मेरे शरीर, रथ, सारथि और घोड़ों को सर्वथा आच्छादित कर दिया। (13)
  • राजन! मेरा रथ चारों ओर से उनके बाणों द्वारा व्याप्त हो रहा था। घोड़ों और सारथि की भी यही दशा थी। युग तथा ईषादण्‍ड को भी उन्होंने उसी प्रकार बाणविद्ध कर रखा था और रथ का धुरा उनके बाणों से कटकर टूक-टूक हो गया था। (14)
  • जब उनकी बाण-वर्षा समाप्त हुई, तब मैंने भी बदले में गुरुदेव पर बाणसमूहों की बौछार आरम्भ कर दी। वे ब्रह्मराशि महात्मा मेरे बाणों से क्षत-विक्षत होकर अपने शरीर से अधिकाधिक रक्त की धारा बहाने लगे। (15)
  • जिस प्रकार परशुरामजी मेरे सायक समूहों से संतप्त थे, उसी प्रकार मैं भी उनके बाणों से अत्यन्त घायल हो रहा था। तदनन्तर सायंकाल में जब सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये, वह युद्ध बंद हो गया। (16)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत अम्बोपाख्‍यानपर्व में एक सौ इक्यासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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