एकोनत्रिंश (29) अध्याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
संजय की बातों का प्रत्युत्तर देते हुए श्रीकृष्ण का उसे धृतराष्ट्र के लिये चेतावनी देना भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- सूत संजय! मैं जिस प्रकार पाण्डवों को विनाश से बचाना, उनको ऐश्र्वर्य दिलाना तथा उनका प्रिय करना चाहता हूँ, उसी प्रकार अनेक पुत्रों से युक्त राजा धृतराष्ट्र का भी अभ्युदय चाहता हूँ। सूत! मेरी भी सदा यही अभिलाषा है कि दोनों पक्षो-में शांति बनी रहे। ‘कुन्तीकुमारो! कौरवों से संधि करो, उनके प्रति शांत बने रहो', इसके सिवा दूसरी कोई बात मैं पाण्डवों के सामने नहीं कहता हूँ। राजा युधिष्ठिर के मुँह से भी ऐसा ही प्रिय वचन सुनता हूँ और स्वयं भी इसी को ठीक मानता हूँ। संजय! जैसा कि पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने प्रकट किया है, राज्य के प्रश्नों को लेकर दोनों पक्षों में शांति बनी रहे, यह अत्यंत दुष्कर जान पड़ता है। पुत्रों सहित धृतराष्ट्र (इनके स्वरुप) जिस राज्य में आसक्त होकर उसे लेने-की इच्छा करते हैं, उसके लिये इन कौरव-पाण्डवों में कलह कैसे नहीं बढ़ेगा? संजय! तुम यह अच्छी तरह जानते हो कि मुझसे और युधिष्ठिर से धर्म का लोप नहीं हो सकता, तो भी जो उत्साहपूर्वक स्वधर्म का पालन करते हैं तथा शास्त्रों में जैसा बताया गया है, उसके अनुसार ही कुटुम्ब (गृहस्थाश्रम) में रहते हैं, उन्हीं पाण्डुकुमार युधिष्ठिर के धर्मलोप की चर्चा या आशंका तुमने पहले किस आधार पर की है? गृहस्थ आश्रम में रहने की जो शास्त्रोक्त विधि है, उसके होते हुए भी इसके ग्रहण अथवा त्याग के विषय में विदेज्ञ ब्राह्मणों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। कोई तो [1] कर्मयोग के द्वारा ही परलोक में सिद्धि-लाभ होने की बात बताते हैं, [2] दूसरे लोग कर्म को त्यागकर ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि (मोक्ष) का प्रतिपादन करते हैं। विद्वान पुरुष भी इस जगत में भक्ष्य-भोज्य पदार्थों को भोजन किये बिना तृप्त नहीं हो सकता, अतएव विद्वान ब्राह्मण के लिये भी क्षुधानिवृत्ति के लिये भोजन करने का विधान है। जो विद्याएं कर्म का सम्पादन करती हैं, उन्हीं का फल दृष्टि-गोचर होता है, दूसरी विद्याओं का नहीं। विद्या तथा कर्म में भी कर्म का ही फल यहाँ प्रत्यक्ष दिखायी देता है। प्यास से पीड़ित मनुष्य जल पीकर ही शान्त होता है। [3] संजय! ज्ञान का विधान भी कर्म का साथ लेकर ही है; अत: ज्ञान में भी कर्म विद्यमान है। जो कर्म से भिन्न कर्मों के त्याग को श्रेष्ठ मानता है, वह दुर्बल है, उसका कथन व्यर्थ ही है। ये देवता कर्म से ही स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। वायुदेव कर्म को अपनाकर ही सम्पूर्ण जगत में विचरण करते हैं तथा सूर्यदेव आलस्य छोड़कर कर्म द्वारा ही दिन-रात-का विभाग करते हुए प्रतिदिन उदित होते हैं। चन्द्रमा भी आलस्य त्यागकर [4] मास, पक्ष तथा नक्षत्रों का योग प्राप्त करते हैं; इसी प्रकार जात-वेदा (अग्निदेव) भी आलस्य रहित होकर प्रजा के लिये कर्म करते हुए ही प्रज्वलित होकर दाह-क्रिया सम्पन्न करते हैं। पृथ्वीदेवी भी आलस्य शून्य हो [5] बलपूर्वक विश्व के इस महान भार को ढोती हैं। ये नदियां भी आलस्य छोड़कर [6] सम्पूर्ण प्राणियों को तृप्त करती हुई शीघ्रतापूर्वक जल बहाया करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गृहस्थाश्रम में रहकर
- ↑ इस प्रकार यद्यपि गृहस्थाश्रम में रहने और संन्यास लेने-का भी शास्त्र द्वारा ही विधान किया गया है, तथापि अन्य आश्रमों में प्राप्त होने वाले ज्ञान की उपलब्धि तो गृहस्थाश्रम में भी हो सकती है, परंतु गृहस्थ-साध्य यज्ञादि पुण्य कर्म आश्रमांतरों में नहीं हो सकते; अत:सम्पूर्ण धर्मों की सिद्धि का स्थान गृहस्थाश्रम ही है।
- ↑ उसे जान-कर नहीं; अत: गृहस्थाश्रम में रहकर सत्कर्म करना ही श्रेष्ठ है
- ↑ कर्म के द्वारा ही
- ↑ कर्म में तत्पर रहकर ही
- ↑ कर्मपरायण हो
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