महाभारत आदि पर्व अध्याय 156 श्लोक 1-14

षट्पंचाशदधिकशततम (156) अध्‍याय: आदि पर्व (बकवध पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: षट्पंचाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्मण परिवार का कष्‍ट दूर करने के लिये कुन्‍ती को भीमसेन से बातचीत तथा ब्राह्मण के चिन्‍तापूर्ण उद्गार

जनमेजय पूछा- द्विजश्रेष्‍ठ! कुन्ती के महारथी पुत्र पाण्‍डव जब एकचक्रा नगरी में पहुँच गये, उसके बाद उन्‍होंने क्‍या किया? वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन्! एकचक्रा नगरी में जाकर महारथी कुन्‍तीपुत्र थोड़े दिनों तक एक ब्राह्मण के घर में रहे। जनमेजय! उस समय वे सभी पाण्‍डव भाँति-भाँति के रमणीय वनों, सुन्‍दर भूभागों, सरिताओं और सरावरों का दर्शन करते हुए भिक्षा के द्वारा जीवन निर्वाह करते थे। अपने उत्‍तम गुणों के कारण वे सभी नागरिकों के प्रीति-पात्र हो गये थे। उन्‍हें देखकर नगरवासी आपस में तर्क-विर्तक करते हुए इस प्रकार की बातें करते थे- ये ब्राह्मणलोग तो देखने ही योग्‍य हैं।इनके आचार-विचार शुद्ध एवं सुन्‍दर हैं। इनकी आकृति देवकुमारों के समान जान पड़ती है। वे भीख मांगने योग्‍य नहीं, राज्‍य करने के योग्‍य हैं। सुकुमार होते हुए भी तपस्‍या में लगे हैं। इनमें सब प्रकार के शुभ लक्षण शोभा पाते हैं। ये कदापि भिक्षा ग्रहण करने योग्‍य नहीं हैं। शायद किसी कार्यवश भिक्षुकों के वेश में विचर रहे हैं। वे नागरिक पाण्‍डवों के आगमन को अपने बन्‍धुजनों का ही आगमन मानकर उनके लिये भक्ष्‍य–भोज्‍य पालन करने वाले पाण्‍डव उनसें वह भिक्षा ग्रहण करते थे। हमें आये बहुत देर हो गयी, इसलिये माता जी चिन्‍ता में पड़ी होंगी-यह सोचकर माता के गौरव-पाश में बंधे हुए पाण्‍डव बड़ी उतावली के साथ उनके पास लौट आते थे। प्रतिदिन रात्री के आरम्‍भ में भिक्षा लाकर वे माता कुन्‍ती को सौंप देते और वे बांटकर जिसके लिये जितना हिस्‍सा देतीं, उतना ही पृथक्-पृथक् लेकर पाण्‍डव लोग भोजन करते थे।

वे चारों वीर परंतप पाण्‍डव अपनी माता के पास साथ आधी भिक्षा का उपभोग करते थे और सम्‍पूर्ण भिक्षा का आधा भाग अकेले महाबली भीमसेन खाते थे। भरतवंशशिरोमणे! इस प्रकार उस राष्‍ट्र में निवास भिक्षा के लिये गये; किंतु भीमसेन किसी कार्य विशेष के सम्‍बन्‍ध से कुन्‍ती के साथ वहाँ घर पर ही रह गये थे। भारत! उस दिन ब्राह्मण के घर में सहसा बड़े जोर का भयानक आर्तनाद होने लगा, जिसे कुन्‍ती ने सुना। राजन्! उन ब्राह्मण-परिवार के लोगों को बहुत रोते ओर विलाप करते देख कुन्‍ती देवी अत्‍यन्‍त दयालुता तथा साधु-स्‍वभाव के कारण सहन न कर सकीं। उस समय उनका दु:ख मानो कुन्‍ती देवी के हृदय को मथे डालता था। अत: कल्‍याणमयी कुन्‍ती भीमसेन से इस प्रकार करुणायुक्‍त वचन बोलीं- ‘बेटा! हम लोग इस ब्राह्मण के घर में दुर्योधन से अज्ञात रहकर बड़े सुख से निवास करते हैं। यहाँ हमारा इतना सत्‍कार हुआ है कि हम अपने दु:ख और दैन्‍य को भूल गये हैं। इसलिये पुत्र! मैं सदा सोचती रहती हूँ कि इस ब्राह्मण का मैं कौन-सा प्रिय कार्य करुं, जिसे किसी के घर में सुखपूर्वक रहने वाले लोग किया करते थे। तात! जिसके प्रति किया हुआ उपकार उसका बदला चुकाये बिना नष्‍ट नहीं होता, वही पुरुष है (और इतना ही उसका पौरुष (मानवता है कि) दूसरा मनुष्‍य उसके प्रति जितना उपकार करे, वह उससे भी अधिक उस मनुष्‍य का प्रत्‍युपकार कर दे। इस समय निश्‍चय ही ब्राह्मण पर कोई भारी दु:ख आ पड़ा है। यदि उसमें मैं इसकी सहायता करुं तो वास्‍तविक उपकार हो सकता है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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