महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-18

पञ्चपञ्चाशत्तम (55) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: पंचपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


च्‍यवन का कुशिक के पूछने पर उनके घर में अपने निवास का कारण बताना और उन्‍हें वरदान देना

च्यवन बोले- 'नरश्रेष्ठ! तुम मुझसे वर भी मांग लो और तुम्हारे मन में जो संदेह हो, उसे भी कहो। मैं तुम्हारा सब कार्य पूर्ण कर दूंगा।

कुशिक ने कहा- भगवन! भृगुनन्दन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो मुझे यह बताइये कि आपने इतने दिनों तक मेरे घर पर क्यों निवास किया था? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूँ। मुनिपुंगव। इक्कीस दिनों तक एक करवट से सोते रहना, फिर उठने पर बिना कुछ बोले बाहर चल देना, सहसा अन्तर्धान हो जाना, पुनः दर्शन देना, फिर इक्कीस दिनों तक दूसरी करवट से सोते रहना, उठने पर तेल की मालिश कराना, मालिश कराकर चल देना, पुनः मेरे महल में जाकर नाना प्रकार के भोजन को एकत्र करना और उसमें आग लगाकर जला देना, फिर सहसा रथ पर सवार हो बाहर नगर की यात्रा कराना, धन लुटाना, दिव्य वन का दर्शन कराना, वहाँ बहुत-से सुवर्णमय महलों को प्रकट करना, मणि और मूंगों के पाये वाले पलंगों को दिखाना और अन्त में सबको पुनः अदृश्‍य कर देना। महामुने! आपके इन कार्यों का यथार्थ कारण मैं सुनना चाहता हूँ। भृगुकुलरत्न! इस बात पर जब मैं विचार करने लगता हूँ, तब मुझ पर अत्यन्त मोह छा जा जाता है। तपोधन! इन सब बातों पर विचार करके भी मैं किसी निश्‍चय पर नहीं पहुँच पाता हूँ, अतः इन बातों को मैं पूर्ण एवं यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ।'

च्यवन ने कहा- 'भूपाल! जिस कारण से मैंने यह सब कार्य किया था, वह सारा वृत्तांत तुम पूर्ण रूप से सुनो। तुम्हारे इस प्रकार पूछने पर मैं इस रहस्य को बताये बिना नहीं रह सकता। राजन! पूर्वकाल की बात है, एक दिन देवताओं की सभा में ब्रह्मा जी एक बात कह रहे थे जिसे मैंने सुना था, उसे बता रहा हूँ, सुनो। नरेश्वर! ब्रह्मा जी ने कहा था कि ब्राह्मण और क्षत्रिय में विरोध होने के कारण दोनों कुलों में संकरता आ जायेगी। उन्हीं के मुंह से मैंने यह भी सुना था कि तुम्हारे वंश की कन्या से मेरे वंश में क्षत्रिय तेज का संचार होगा और तुम्हारा एक पौत्र ब्राह्मणतेज से सम्पन्न तथा पराक्रमी होगा। यह सुनकर मैं तुम्हारे कुल का विनाश करने के लिये तुम्हारे यहाँ आया था। मैं कुशिक का मूलोच्छेद कर डालना चाहता था। मेरी प्रबल इच्छा थी कि तुम्हारे कुल को जलाकर भस्‍म कर डालूँ।

भूपाल! इसी उद्देश्‍य से तुम्हारे नगर में आकर मैंने तुमसे कहा कि मैं एक व्रत का आरम्भ करूँगा। तुम मेरी सेवा करो (इसी अभिप्राय से मैं तुम्हारा दोष ढूंढ रहा था); किंतु तुम्हारे घर में रहकर भी मैंने आज तक तुममें कोई दोष नहीं पाया। राजर्षे! इसीलिये तुम जीवित हो, अन्यथा तुम्हारी सत्ता मिट गयी होती। भूपते! यही विचार मन में लेकर मैं इक्कीस दिनों तक एक करवट से सोता रहा कि कोई मुझे बीच में आकर जगावे। नृपश्रेष्ठ! जब पत्‍नी सहित तुमने मुझे सोते समय नहीं जगाया, तभी मैं तुम्हारे ऊपर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ था। भूपते! प्रभो! जिस समय में उठकर घर से बाहर जाने लगा, उस समय यदि तुम मुझसे पूछ देते कि 'कहाँ जाइयेगा' तो इतने से ही मैं तुम्हें शाप दे देता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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