एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
महाभारत: आदि पर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
कर्ण ने कहा- दुर्योधन! मेरे विचार से तुम्हारी यह सलाह ठीक नहीं है। कुरुवर्धन! ऐसे किसी भी उपाय से पाण्डवों की वश में नहीं किया जा सकता। वीर! पहले भी तुमने अनेक गुप्त उपायों द्वारा पाण्डवों को दबाने की चेष्टा की है, परंतु उन पर तुम्हारा वश नहीं चल सका। भूपाल! वे जब बच्चे थे और यहीं तुम्हारे पास रहते थे, उस समय उनके पक्ष में कोई नहीं था, तब भी तुम उन्हें बाधा पहुँचाने में सफल न हो सके। अब तो वे विदेश में हैं, उनके पक्ष में बहुत-से लोग हो गये हैं और सब प्रकार से उनकी बढ़ती हो गयी है। अत: अब वे कुन्तीकुमार तुम्हारे बताये हुए उपायों द्वारा वश में आने वाले नहीं हैं। पुरुषार्थ से कभी च्युत न होने वाले वीर! मेरा तो यही विचार है। अब वे संकट में नहीं डाले जा सकते। भाग्य ने उन्हें शक्तिशाली बना दिया है और उनमें अपने बाप-दादों के राज्य को प्राप्त करने की अभिलाषा जाग उठी है। उनमें आपस में भी फूट डालना सम्भव नहीं है। जो (एक राय होकर) एक ही पत्नी में अनुरक्त हैं, उनमें परस्पर विरोध नहीं हो सकता। कृष्णा को भी उनकी ओर से फूट डालकर विलग करना असम्भव है; क्योंकि जब पाण्डव लोग भिक्षाभोजी होने के कारण दीन-हीन थे, उस अवस्था में कृष्णा ने उनका वरण किया है; अब तो वे सम्पत्तिशाली होकर स्वच्छ एवं सुन्दर वेष में रहते हैं, अब वह क्यों उनकी ओर से विरक्त होगी? प्राय: स्त्रियों का यह अभीष्ट गुण है कि एक स्त्री में अनेक पुरुषों से सम्बन्ध स्थापित करने की रुचि हो। पाण्डवों के साथ रहने में कृष्णा को यह लाभ स्वत: प्राप्त है; अत: उसके मन में भेद नहीं उत्पन्न किया जा सकता। पाञ्चालराज द्रुपद श्रेष्ठ व्रत का पालन करने वाले हैं। वे धन के लोभी नहीं हैं। अत: तुम अपना सारा राज्य दे दो, तो भी यह निश्चय है कि वे कुन्तीपुत्रों का परित्याग नहीं करेंगे। इसी प्रकार उनका पुत्र धृष्टद्युम्न भी गुणवान् तथा पाण्डवों का प्रेमी है। अत: मैं उन्हें पूर्वोक्त उपायों से वश में करने योग्य कदापि नहीं मान सकता। राजन्! इस समय हमारे लिये एक ही उपाय काम में लाने योग्य है; वे पुरुष श्रेष्ठ पाण्डव जब तक अपनी जड़ नहीं जमा लेते, तभी तक उन पर प्रहार करना चाहिये। इसी से वे काबू में आ सकते है।’ तात! मैं समझता हूं, तुम्हें भी यह राय पसंद होगी। जब तक हमारा पक्ष, बढ़ा-चढ़ा है, और जब तक पाञ्चाल राज का बल हमसे कम है, तभी तक उन पर आक्रमण कर दिया जाय। इसमें दूसरा कुछ विचार न करो। राजन्! गान्धारीनन्दन! जब तक पाण्डवों के पास बहुत-से वाहन, मित्र और कुटुम्बी नहीं हो जाते, तभी तक तुम उनके ऊपर पराक्रम कर लो। पृथ्वीपते! जब तक पाञ्चाल नरेश अपने महापराक्रमी पुत्रों के साथ हमारे ऊपर चढ़ाई करने का विचार नहीं कर रहे हैं, तभी तक तुम अपना बल विक्रम प्रकट कर लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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