महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-19

त्रिचत्‍वारिंश (43) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: त्रिचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


पाण्‍डवों के साथ जयद्रथ का युद्ध और व्‍यूहद्वार को रोक रखना

  • संजय कहते हैं–राजेन्‍द्र! आप मुझसे जो सिंधुराज जयद्रथ के पराक्रम का समाचार पूछ रहें हैं, वह सब सुनिये। उसने जिस प्रकार पाण्‍डवों के साथ युद्ध किया था, वह सारा वृतान्‍त बताऊँगा। (1)
  • सारथि के वश में रहकर अच्‍छी तरह सवारी का काम देने वाले, वायु के समान वेगशाली तथा नाना प्रकार की चाल दिखाते हुए चलने वाले सिंधुदेशीय विशाल अश्व जयद्रथ को वहन करते थे। (2)
  • विधिपूर्वक सजाया हुआ उसका रथ गन्‍धर्वनगर के समान जान पड़ता था। उसका रजतनिर्मित एवं वाराहचिह्न से युक्‍त महान ध्वज उसके रथ की शोभा बढ़ा रहा था। (3)
  • श्‍वेत छत्र, पताका, चँवर और व्‍यजन–इन राजचिह्नों से वह आकाश में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित हो रहा था। (4)
  • उसके रथ का मुक्ता, मणि, सुवर्ण तथा हीरों से विभूषित लोहमय आवरण नक्षत्रों से व्‍याप्‍त हुए आकाश के समान सुशोभित होता था। (5)
  • उसने अपना विशाल धनुष फैलाकर बहुत से बाणसमूहों की वर्षा करते हुए व्‍यूह के उस भाग को योद्धाओं द्वारा भर दिया, जिसे अभिमन्‍यु ने तोड़ डाला था। (6)
  • उसने सात्‍यकि को तीन, भीमसेन को आठ, धृष्टद्युम्न को साठ, विराट को दस, द्रुपद को पाँच, शिखण्‍डी को सात, केकयराजकुमार को पच्चीस, द्रौपदीपुत्रों को तीन-तीन तथा युधिष्ठिर को सत्‍तर तीखे बाणों द्वारा घायल कर दिया। तत्‍पश्चात बाणों का बड़ा भारी जाल-सा बिछाकर उसने शेष सैनिकों को भी पीछे हटा दिया। यह एक अद्भुत-सी बात थी। (7-9)
  • तब प्रतापी राजा धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने एक तीखे और पानीदार भल्ल के द्वारा उसके धनुष को काटने की घोषणा करके हँसते-हँसते काट डाला। (10)
  • उस समय जयद्रथ ने पलक मारते–मारते दूसरा धनुष हाथ में लेकर युधिष्ठिर को दस तथा अन्‍य वीरों को तीन-तीन बाणों से बींध डाला। (11)
  • उसकी इस फुर्ती को देख और समझकर भीमसेन ने तीन-तीन भल्लों द्वारा उसके धनुष, ध्वज और छत्र को शीघ्र ही पृथ्‍वी पर काट गिराया। (12)
  • आर्य! तब उस बलवान वीर ने दूसरा धनुष ले उस पर प्रत्‍यंचा चढ़ाकर भीम के धनुष, ध्वज और घोड़ों को धराशायी कर दिया। (13)
  • धनुष कट जाने पर अपने अश्वहीन उत्‍तम रथ से कूदकर भीमसेन सात्‍यकि के रथ पर जा बैठे, मानो कोई सिंह पर्वत के शिखर पर जा चढ़ा हो। (14)
  • सिंधुराज के उस अद्भुत पराक्रम को, जो सुनने पर विश्‍वास करने योग्‍य नहीं था, प्रत्‍यक्ष देख आपके सभी सैनिक अत्‍यन्‍त हर्ष में भरकर उसे साधुवाद देने लगे। (15)
  • जयद्रथ ने अकेले ही अपने अस्त्रों के तेज से क्रोध में भरे हुए पाण्‍डवों को रोक लिया, उसके उस पराक्रम की सभी प्राणी प्रंशसा करने लगे। (16)
  • सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु ने पहले गजारोहियों सहित बहुत-से गजराजों को मारकर व्‍यूह में प्रवेश करने के लिये जो पाण्‍डवों को मार्ग दिखा दिया था, उसे जयद्रथ ने बंद कर दिया। (17)
  • वे वीर मत्स्य, पांचाल, केकय तथा पाण्‍डव बारंबार प्रयत्‍न करके व्‍यूह पर आक्रमण करते थे; परंतु सिंधुराज के सामने टिक नहीं पाते थे। (18)
  • आपका जो-जो शत्रु द्रोणाचार्य के व्‍यूह को तोड़ने का प्रयत्‍न करता, उसी श्रेष्‍ठ वीर के पास पहुँचकर जयद्रथ उसे रोक देता था। (19)
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवधपर्व में जयद्रथ युद्धविषयक तैतालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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