सप्तविंश (27) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद ज्ञानयोग और कर्मयोग आदि समस्त साधनों के अनुसार कर्तव्य कर्म करने की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्म पालन की महिमा तथा कामनिरोध के उपाय का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3
अर्जुन बोले- हे जर्नादन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं? आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं।[5] इसलिये उस एक बात को निश्चित करके कहिये, जिससे में कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ। सम्बन्ध- इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर भगवान् उनका निश्चित कर्तव्य भक्तिप्रधान कर्मयोग बतलाने के उद्देश्य से पहले उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि मेरे वचन व्यामिश्र अर्थात् मिले हुए नहीं है वरं सर्वथा स्पष्ट और अलग अलग हैं। श्री भगवान् बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा पहले कही गयी है। उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से[6] और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से[7] होती है। मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के कवल त्याग मात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है।[8] नि:संदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिये बाध्य किया जाता है।[9] सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में यह बात कही गयी कि कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता; इस पर यह शंका होती है कि इन्द्रियों की क्रियाओं को हठ से रोककर भी तो मनुष्य कर्मों का त्याग कर सकता है। इस पर कहते हैं- जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्मी कहा जाता है।[10] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2।11
- ↑ गीता 2।30
- ↑ गीता 2।30
- ↑ गीता 2।43
- ↑ भगवान् के वचनों का तात्पर्य न समझने के कारण अर्जुन को भी भगवान् के वचन मिले हुए से प्रतीत होते थे; क्योंकि बुद्धियोग की अपेक्षा कर्म अत्यन्त निकृष्ट है, तू बुद्धि का ही आश्रय ग्रहण कर (गीता 2।49) इस कथन से तो अर्जुन ने समझा कि भगवान् ज्ञान की प्रशंसा और कर्मों की निन्दा करते हैं और मुझे ज्ञान का आश्रय लेने के लिये कहते हैं तथा बुद्धियुक्त पुरुष पुण्य पापों को यहीं छोड़ देता है (गीता 2।50) इस कथन से यह समझा कि पुण्य पाप रूप का समस्त कर्मों का स्वरूप से त्याग करने वाले को भगवान बुद्धियुक्त कहते हैं। इसके विपरित तेरा कर्म में अधिकार है (गीता 2।47) तू योग में स्थित होकर कर्म कर (गीता 2।48) इन वाक्यों से अर्जुन ने यह बात समझी कि भगवान् मुझे कर्मों में नियुक्तकर रहे हैं; इसके सिवा निस्त्रैगुण्यों भव आत्मवान् भव (गीता 2।45) आदि वाक्यों से कर्म का त्याग और तस्माद् युध्यस्व भारत (गीता2।18), ततो युद्धाय युज्यस्व (गीता 2।38) तस्माद् योगाय युज्यस्व (गीता2।50) आदि वचनों से उन्होंने कर्म की प्रेरणा समझी। इस प्रकार उपर्युक्त वचनों में उन्हें विरोध दिखायी दिया।
- ↑ प्रकृति से उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं (गीता3।28), मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- ऐसा समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली समस्त क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से सर्वथारहित हो जाना; किसी भी क्रिया में या उसके फल में किचिंतमात्र भी अर्हता, ममता, आसक्ति और कामना का न रहना तथा सच्चिदानन्द ब्रह्म से अपने को अभिन्न समझकर निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाना अर्थात ब्रह्मभूत (ब्रह्मस्वरूप) बन जाना (गीता 5।24; 6।27)- यह पहली निष्ठा है। इसका नाम ज्ञान निष्ठा है।
- ↑ वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य के लिये जिन कर्मों का शास्त्र में विधान है, जिनका अनुष्ठान करना मनुष्य के लिये अवश्य कर्तव्य माना गया है, उन शास्त्रविहीन स्वाभाविक कर्मों का न्यायपूर्वक, अपना कर्तव्य समझ कर अनुष्ठान करना; उन कर्मों में और उनके फल में समता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके प्रत्येक कर्म की सिद्धि और असिद्धि में तथा उसके फल में सदा ही सम रहना (गीता 2।47-48) एवं इन्द्रियों के भोगों में और कर्मों में आसक्त न होकर समस्त संकल्पों का त्याग करके योगारूढ़ हो जाना (गीता 6।4)- यह कर्मयोग की निष्ठा है। तथा परमेश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सर्वव्यापी, सबके सुहृद् और सबके प्रेरक समझकर और अपने को सर्वथा उनके अधीन मानकर समस्त कर्म और उनका फल भगवनान् के समर्पण करना (गीता 3।30; 9।27-28), उनकी आशा और प्ररेणा के अनुसार उनकी पूजा समझकर जैसे वे करवावें, वैसे ही समस्त कर्म करना; उन कर्मों में या उनके फल में किंचितमात्र भी ममता, आसक्ति या कामना न रखना; भगवान् के प्रत्येक विधान में सदा ही संतुष्ट रहना तथा निरन्तर उनके नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिन्तन करते रहना (गीता 10।9; 12।6; 18।57)- यह भक्तिप्रधान कर्मयोग की निष्ठा है।
- ↑ कर्मों का आरम्भ न करने और कर्मों का त्याग करने की बात कहकर अलग-अलग यह भाव दिखया है कि कर्मयोगी के लिये विहित कर्मों का न करना योगनिष्ठा की प्राप्ति में बाधक है; किंतु सांख्ययोगी के लिये कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देना सांख्यनिष्ठा की प्राप्ति में बाधक नहीं हैं, किंतु केवल उसी से उसे सिद्धि नहीं मिलती, सिद्धि की प्राप्ति के लिये उसे कर्तापन का त्याग करके सच्चिदानन्द ब्रह्म में अभेद भाव से स्थित होना आवश्यक है। अतएव उसके लिये कर्मों का स्वरूपत: त्याग करना मुख्य बात नहीं है, भीतरी त्याग ही प्रधान है और कर्मयोगी के लिये स्वरूप से कर्मों का त्याग न करना विधेय है।
- ↑ यद्यपि गुणातीत ज्ञानी पुरुष का गुणों से या उनके कार्य से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; अत: वह गुणों से या उनके कार्य से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; अत: वह गुणों के वश में होकर कर्म करता है, यह कहना नहीं बन सकता; तथापि मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि का सिद्यांतरूप जो उसका शरीर लोगों की दृष्टि में वर्तमान है, उसके द्वारा उसके और लोगों के प्रारब्धानुसार क्रिया का होना अनिवार्य है; क्योंकि वह गुणों का कार्य होने से गुणों में अतीत नहीं हैं, बल्कि उस ज्ञानी का शरीर से सर्वथा अतीत हो जाना ही गुणातीत हो जाना है।
- ↑ यहाँ कर्मन्द्रियाणि पद का पारिभाषिक अर्थ नहीं हैं; इसलिये जिनके द्वारा मनुष्य बाहर की क्रिया करता है अर्थात् शब्दादि विषयों को ग्रहण करता है, उन श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना और घ्राण तथा वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा- इन दसों इन्द्रियों का वाचक है; क्योंकि गीता में श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों के लिये कहीं भी ज्ञानेन्द्रिय शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इसके सिवा यहाँ कर्मन्द्रियों का अर्थ केवल वाणी आदि पाँच इन्द्रियाँ मान लेने से श्रोत्र और नेत्र आदि इन्द्रियों को रोकने की बात शेष रह जाती है और उसके रह जाने से मिथ्याचारी का स्वाँग भी पूरा नहीं बनता; तथा वाणी आदि इन्द्रियों को रोकर श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा वह क्या करता है, यह बात भी यहाँ बतलानी आवश्यक हो जाती है।
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज