महाभारत आदि पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-18

त्रयोविंश (23) अध्याशय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंश अध्यााय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
पराजित विनता का कद्रू की दासी होना, गरुड़ की उत्पत्ति तथा देवताओं द्वारा उनकी स्तुति

उग्रश्रवा जी कहते हैं- शौनक! तदनन्तर शीघ्रगामिनी कद्रू विनता के साथ उस समुद्र को लाँघ कर तुरन्त ही उच्चैःश्रवा घोड़े के पास पहुँच गयी। उस समय चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत वर्ण वाले उस महान वेगशाली श्रेष्ठ अश्व को उन दोनों ने काली पूँछ वाला देखा। पूँछ के घनीभूत बालों को काले रंग का देखकर विनता विषाद की मूर्ति बन गयी और कद्रू ने उसे अपनी दासी के काम में लगा दिया। पहले की लगायी हुई बाजी हार कर विनता उस स्थान पर दुःख से संतप्त हो उठी और उसने दासी भाव स्वीकार कर लिया। इसी बीच में समय पूरा होने पर महातेजस्वी गरुड़ माता की सहायता के बिना ही अण्डे फोड़कर बाहर निकल आये। वे महान सहास और पराक्रम सम्पन्न थे। अपने तेज से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति थी। वे जहाँ जितनी जल्दी जाना चाहें जा सकते थे और अपनी रुचि के अनुसार पराक्रम दिखला सकते थे। उनका प्राकट्य आकाशचारी पक्षी के रूप में हुआ था। वे प्रज्वलित अग्नि-पुंज के समान उद्भासित होकर अत्यन्त भयंकर जान पड़ते थे। उनकी आँखें बिजली के समान चमकने वाली और पिंगल वर्ण की थी। वे प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे। उनका शरीर थोड़ी ही देर में बढ़कर विशाल हो गया। पक्षी गरुड़ आकाश में उड़ चले। वे स्वयं तो भयंकर थे ही, उनकी आवाज भी बड़ी भयानक थी। वे दूसरे बड़वानल की भाँति बड़े भीषण जान पड़ते थे।

उन्हें देखकर सब देवता विश्वरूपधारी अग्नि देव की शरण में गये और उन्हें प्रणाम करके बैंठे हुए उन अग्नि देव से इस प्रकार बोले- ‘अग्ने! आप इस प्रकार न बढ़ें। आप हम लोगों को जलाकर भस्म तो नहीं कर डालना चाहते हैं? देखिये, वह आपका महान प्रज्वलित तेजपुंज इधर ही फैलता आ रहा है।' अग्निदेव ने कहा- असुर विनाशक देवताओं! तुम जैसे समझ रहे हो, वैसी बात नहीं है। ये महाबली गरुड़ हैं जो तेज में मेरे ही तुल्य निवता का आनन्द! बढ़ाने वाले यह परमतेजस्वी गरुड़ इसी रूप में उत्पन्न हुए हैं। तेज के पुंज रूप इन गरुड़ को देखकर ही तुमलोगों पर मोह छाया। कश्यपनन्दन महाबली गरुड़ नागों के विनाशक, देवताओं के हितैषी और दैत्यों तथा राक्षसों के शत्रु हैं। इनसे किसी प्रकार का भय नहीं करना चाहिये। तुम मेरे साथ चलकर इनका दर्शन करो। अग्निदेव के ऐसा कहने पर उस समय देवताओं तथा ऋषियों ने गरुड़ के पास जाकर अपनी वाणी द्वारा उनका इस प्रकार स्तवन किया (यहाँ परमात्मा के रूप में गरुड़ की स्तुति की गयी हैं)। देवता बोले- प्रभो! आप मन्त्र दृष्टा ऋषि हैं; आप ही महाभाग देवता तथा आप ही पतगेश्वर (पक्षियों तथा जीवों के स्वामी हैं)। आप ही प्रभु, तपन, सूर्य, परमेष्ठी तथा प्रजापति हैं। आप ही इन्द्र हैं, आप ही हयग्रव हैं, आप ही शिव हैं तथा आप ही जगत के स्वामी हैं। आप ही भगवान के मुख स्वरूप ब्राह्मण, पद्ययोगि ब्रह्मा और विज्ञानवान विप्र हैं, आप ही अग्नि तथा वायु हैं, आप ही धाता हैं, विधाता और देवश्रेष्ठ विष्णु हैं। आप ही महत्तत्त्व और अहंकार हैं। आप ही सनातन, अमृत और महान यश हैं। आप ही प्रभा और आप ही अभीष्ट पदार्थ हैं। आप ही हम लोगों के सर्वोत्तम रक्षक हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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