महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-19

षोडश (16) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्ट्र का पुरवासियों को लौटाना और पांडवों के अनुरोध करने पर भी कुन्ती का वन में जाने से न रुकना

वैशम्पायन जी कहते हैं- पृथ्वीनाथ! तदनन्तर महलों और अट्टालिकाओं में तथा पृथ्वी पर भी रोते हुए नर-नारियों का महान कोलाहल छा गया। सारी सड़क पुरुषों और स्त्रियों की भीड़ से भरी हुई थी। उस पर चलते हुए बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ पाते थे। उनके दोनों हाथ जुडे़ हुए थे और शरीर काँप रहा था। राजा धृतराष्ट्र वर्धमान नामक द्वार से होते हुए हस्तिनापुर से बाहर निकले। वहाँ पहुँचकर उन्होंने बारंबार आग्रह करके अपने साथ आये हुए जनसमूह को विदा किया। विदुर और गवल्गणकुमार महामात्र सूत संजय ने राजा के साथ ही वन में जाने का निश्चय कर लिया था।

महाराज धृतराष्ट्र ने कृपाचार्य और महारथी युयुत्सु को युधिष्ठिर के हाथों सौंपकर लौटाया। पुरवासियों के लौट जाने पर अन्तःपुर की रानियों सहित राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर लौट जाने का विचार किया। उस समय उन्होंने वन की ओर जाती हुई अपनी माता कुन्ती से कहा- "रानी माँ! आप अपनी पुत्रवधुओं के साथ लौटिये, नगर को जाइये। मैं राजा के पीछे-पीछे जाऊँगा; क्योंकि ये धर्मात्मा नरेश तपस्या के लिये निश्चय करके वन में जा रहे हैं, अतः इन्हें जाने दीजिये।"

धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर कुन्ती के नेत्रों में आँसू भर आया तो भी वे गांधारी का हाथ पकड़े चलती ही गयीं। जाते-जाते ही कुन्ती ने कहा- "महाराज! तुम सहदेव पर कभी अप्रसन्न न होना। राजन! यह सदा मेरे और तुम्हारे प्रति भक्ति रखता आया है। संग्राम में कभी पीठ न दिखाने वाले अपने भाई कर्ण को भी सदा याद रखना, क्योंकि मेरी ही दुर्बुद्धि के कारण वह वीर युद्ध में मारा गया। बेटा! मुझ अभागिनी का हृदय निश्चय ही लोहे का बना हुआ है; तभी तो आज सूर्यनन्दन कर्ण को न देखकर भी इसके सैकड़ों टुकडे़ नहीं हो जाते। शत्रुदमन! ऐसी दशा में मैं क्या कर सकती हूँ। यह मेरा ही महान दोष है कि मैंने सूर्यपुत्र कर्ण का तुम लोगों को परिचय नहीं दिया। महाबाहो! शत्रुमर्दन! तुम अपने भाईयों के साथ सदा ही सूर्यपुत्र कर्ण के लिये भी उत्तम दान देते रहना। शत्रुसूदन! मेरी बहू द्रौपदी का भी सदा प्रिय करते रहना। कुरुश्रेष्ठ! तुम भीमसेन, अर्जुन और नकुल को भी सदा संतुष्ट रखना। आज से कुरुकुल का भार तुम्हारे ही ऊपर है। अब मैं वन में गांधारी के साथ शरीर पर मैल एवं कीचड़ धारण किये तपस्विनी बनकर रहूँगी और अपने इन सास-ससुर के चरणों की सेवा में लगी रहूँगी।"

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! माता के ऐसा कहने पर अपने मन को वश में रखने वाले धर्मात्मा एवं बुद्धिमान युधिष्ठिर भाईयों सहित बहुत दुःखी हुए। वे अपने मुँह में कुछ न बोले। दो घड़ी तक कुछ सोच विचार कर चिन्ता और शोक में डूबे हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने माता से दीन होकर कहा- "माता जी! आपने यह क्या निश्चय कर लिया? आपको ऐसी बात नहीं करनी चाहिये। मैं आपको वन में जाने की अनुमति नहीं दे सकता। आप मुझ पर कृपा कीजिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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