महाभारत आदि पर्व अध्याय 218 श्लोक 1-18

अष्टादशाधिकद्विशततम (218) अध्‍याय: आदि पर्व (सुभद्राहरण पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: अष्टादशाधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


रैवतक पर्वत के उत्सव में अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना और श्रीकृष्ण तथा युधिष्ठिर की अनुमति से उसे हर ले जाने का निश्चय करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर कुछ दिन बीतने के बाद रैवतक पर्वत पर वृष्णि और अन्धकवंश के लोगों का बड़ा भारी उत्सव हुआ। पर्वत पर होने वाले उत्सव में भोज, वृष्णि और अन्धकवंश के वीरों ने सहस्र ब्राह्मणों को दान दिया। राजन्! उस पर्वत के चारों ओर रत्नजनित विचित्र राजभवन और कल्पवृक्ष थे, जिनसे उस स्थान की बड़ी शोभा हो रही थी। वहाँ बाजे बजाने में कुशल मनुष्य अनेक प्रकार के बाजे बजाते, नाचने वाले नाचते और गायकगण गीत गाते थे। महान् तेजस्वी वृष्णिवंशियों के बालक वस्त्राभूषणों से विभूषित हो सुवर्णचित्रित सवारियों पर बैठकर देदीप्यमान होते हुए चारों ओर घूम रहे थे। द्वारकापुरी के निवासी सैकड़ों हजारों मनुष्य अपनी स्त्रियों और सेवकों के साथ पैदल चलकर अथवा छोटी-बड़ी सवारियों के द्वारा आकर उस उत्सव में सम्मिलित हुए थे। भारत! भगवान् बलराम हर्षोन्मत्त होकर वहाँ रेवती के साथ विचर रहे थे। उनके पीछे-पीछे गन्धर्व (गायक) चल रहे थे। वृष्णिवंश के प्रतापी राजा उग्रसेन भी वहाँ आमोद-प्रमोद कर रहे थे। उनके पास बहुत से गन्धर्व गा रहे थे और सहस्रों स्त्रियाँ उनकी सेवा कर रहीं थी।

युद्ध में दुर्मद वीरवर प्रद्युम्न और साम्ब दिव्य मालाएँ तथा दिव्य वस्त्र धारण करके आनन्द से उन्मत्त हो देवताओं की भाँति विहार करते थे। अक्रूर, सारण, मद, बभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारूदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, भंगकार, महारव, हृदिकपुत्र कृतवर्मा, उद्धव और जिसका नाम यहाँ नहीं लिया गया है, ऐसे अन्य यदुवंशी भी सब के सब अलग-अलग स्त्रियों और गन्धर्वों से घिरे हुए रैवतक पर्वत के उस उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। उस अत्यन्त अद्भुत विचित्र कौतूहलपूर्ण उत्सव में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन एक साथ घूम रहे थे। इसी समय वहाँ वसुदेव जी की सुन्दरी पुत्री सुभद्रा श्रृंगार से सुसज्जित हो स्त्रियों से घिरी हुई उधर आ निकली। वहाँ टहलते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उसे देखा। उसे देखते ही अर्जुन के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी। उनका चित्त उसी के चिन्तन में एकाग्र हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन की इस मनोदशा को भाँप लिया। फिर वे पुरुषोत्तम हँसते हुए से बोले- ‘भारत! यह क्या, वनवासी का मन भी इस तरह काम से उन्मथित हो रहा है? कुन्तीनन्दन! यह मेरी और सारण की सगी बहिन है, तुम्हारा कल्याण हो, इसका नाम सुभद्रा है। यह मेरे पिता की बड़ी लाड़िली कन्या है। यदि तुम्हारा विचार इससे ब्याह करने का हो तो मैं पिता से स्वयं कहूँगा।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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