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महाभारत: सभा पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद
- यमराज की सभा का वर्णन
- नारद जी कहते हैं- कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! अब मैं सूर्यपुत्र यम की सभा का वर्णन करता हूँ, सुनो। उसकी रचना भी विश्वकर्मा ने ही की है। (1)
- राजन! वह तेजोमयी विशाल सभा लम्बाई और चौड़ाई में भी सौ योजन है तथा पाण्डुनन्दन! सम्भव है, इससे भी कुछ बड़ी हो। (2)
- उसका प्रकाश सूर्य के समान है। इच्छानुसार रूप धारण करने वाली वह सभा सब ओर से प्रकाशित होती है। वह न तो अधिक शीतल है, न अधिक गर्म। मन को अत्यन्त आनन्द देने वाली है। (3)
- उसके भीतर न शोक है, न जीर्णता; न भूख लगती है, न प्यास। वहाँ कोई भी अप्रिय घटना नहीं घटित होती। दीनता, थकावट अथवा प्रतिकूलता का तो वहाँ नाम भी नहीं है। (4)
- शत्रुदमन! वहाँ दिव्य और मानुष, सभी प्रकार के भोग उपस्थित रहते हैं। सरस एवं स्वादिष्ठ भक्ष्य-भोज्य पदार्थ प्रचुर मात्रा में संचित रहते हैं। (5)
- इसके सिवा चाटने योग्य, चूसने योग्य, पीने योग्य तथा हृदय को प्रिय लगने वाली और भी स्वादिष्ठ एवं मनोहर वस्तुएँ वहाँ सदा प्रस्तुत रहती हैं। उस सभा में पवित्र सुगन्ध फैलाने वाली पुष्प-मालाएँ और सदा इच्छानुसार फल देने वाले वृक्ष लहलहाते रहते हैं। (6)
- वहाँ ठंडे और गर्म स्वादिष्ठ जल नित्य उपलब्ध होते हैं। तात! वहाँ बहुत से पुण्यात्मा राजर्षि और निर्मल हृदय-वाले ब्रह्मर्षि प्रसन्नतापूर्वक बैठकर सूर्य पुत्र यम की उपासना करते हैं। (7 ½)
- ययाति, नहुष, पूरु, मान्धाता, सोमक, नृग, त्रसद्दस्यु, राजर्षि कृतवीर्य, श्रुतश्रवा, अरिष्टनेमि, सिद्ध, कृतवेग, कृति, निमि, प्रतर्दन, शिबि, मत्स्य, पृथुलाक्ष, बृहद्रथ, वार्त, मरुत्त, कुशिक, सांकाश्य, सांकृति, ध्रुव, चतुरश्व, सदश्वोर्मि, राजा कार्तवीर्य अर्जुन, भरत, सुरथ, सुनीथ, निशठ, नल, दिवोदास, सुमना, अम्बरीष, भगीरथ, व्यश्व, सदश्व, बध्यश्व, पृथुवेग, पृथुश्रवा, पृषदश्व, वसुमना, महाबली क्षुप, रुषद्रु, वृषसेन, रथ और ध्वजा से युक्त पुरुकुत्स, आर्ष्टिषेण, दिलीप महात्मा उशीनर, औशीनरि, पुण्डरीक, शर्याति, शरभ, शुचि, अंग, अरिष्ट, वेन, दुष्यन्त, सृन्जय, जय, भांगासुरि, सुनीथ, निषधेश्वर, वहीनर, करन्धम, बाह्लिक, सुद्युम्न, बलवान मधु, इला नन्दन पुरूरवा, बलवान राजा मरुत्त, कपोतरोमा, तृणक, सहदेव, अर्जुन, व्यश्व, साश्व, कृशाश्व, राजा शशबिन्दु, महाराज दशरथ, ककुत्स्थ, प्रवर्धन, अलर्क, कक्षसेन, गय, गौराश्व, जमदग्निनन्दन परशुराम, नाभाग, सगर, भूरिद्युम्न, महाश्व, पृथाश्व, जनक, राजा पृथु, वारिसेन, पुरूजित, जनमेजय, ब्रह्मदत्त, त्रिगर्त, राजा उपरिचर, इन्द्रद्युम्न, भीमजानु, गौरपृष्ठ, अनघ, लय, पद्म, मुचुकुन्द, भूरिद्युम्न, प्रसेनजित, अरिष्टनेमि, सुद्युम्न , पृथुलाश्व, अष्टक, एक सौ मत्स्य, एक सौ नीप, एक सौ गय, एक सौ धृतराष्ट्र, अस्सी जनमेजय, सौ ब्रह्मदत्त, सौ वीरी, सौ ईरी, दो सौ भीष्म, एक सौ भीम, एक सौ प्रतिविन्ध्य, एक सौ नाग तथा एक सौ हय, सौ पलाश, सौ काश और सौ कुश राजा एवं शान्तनु, तुम्हारे पिता पाण्डु, उशंगव, शतरथ, देवराज, जयद्रथ, मन्त्रियों सहित बुद्धिमान राजर्षि वृषदर्भ तथा इनके सिवा सहस्रों शशबिन्दु नामक राजा, जो अधिक दक्षिणा वाले अनेक महान अश्वमेध यज्ञों द्वारा यजन करके धर्मराज के लोक में गये हुए हैं। राजेन्द्र! ये सभी पुण्यात्मा, कीर्तिमान और बहुश्रुत राजर्षि उस सभा में सूर्यपुत्र यम की उपासना करते हैं। (8-28)
- अगस्त्य, मतंग, काल, मृत्यु, यज्ञकर्ता, सिद्ध, योग-शरीरधारी, अग्निष्वात्त पितर, फेनप, ऊष्मप, स्वधावान, बर्हिषद तथा दूसरे मूर्तिमान पितर, साक्षात कालचक्र[1], भगवान हव्य-वाहन[2], दक्षिणायन में मरने वाले तथा सकामभाव से दुष्कर[3] कर्म करने वाले मनुष्य, जनेश्वर काल की आज्ञा में तत्पर यमदूत, शिंशप एवं पलाश, काश और कुश आदि के अभिमानी देवता मूर्तिमान होकर उस सभा में धर्मराज की उपासना करते हैं। (29-32)
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