महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 151 श्लोक 1-12

एकपञ्चाशदधिकशततम (151) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्महत्‍या के अपराधी जनमेजय का इन्‍द्रोत मुनि की शरण में जाना और इन्‍द्रोत मुनि का उससे ब्राह्मणद्रोह न करने की प्रतिज्ञा कराकर उसे शरण देना


भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! मुनिवर इन्द्रोत के ऐसा कहने पर जनमेजय उन्‍हें इस प्रकार उत्‍तर दिया- ‘मुने! मैं घृणा और तिरस्‍कार के योग्‍य हूँ, इसीलिये आप मेरा तिरस्‍कार करते हैं। मैं निंदा का पात्र हूँ, इसीलिये बार-बार मेरी निंदा करते हैं। मैं धिक्‍कारने और दुतकारने के ही योग्‍य हूँ; इसीलिये आपकी ओर से मुझे धिक्‍कार मिल रहा है और इसीलिये मैं आपको प्रसन्‍न करना चाहता हूँ। ‘यह सारा पाप मुझ में मौजूद है; अत: मैं चिन्‍ता से उसी प्रकार जल रहा हूँ, मानो किसी ने मुझे आग के भीतर रख दिया हो। अपने कुकर्मों को याद करके मेरा मन स्‍वत: प्रसन्‍न नहीं हो रहा है। ‘निश्‍चय ही मुझे यमराज से भी घोर भय प्राप्‍त होने वाला है, यह बात मेरे हृदय में काँटे की भाँति चुभ रही है। अपने हृदय से इसको निकाले बिना मैं कैसे जीवित रह सकूँगा? अत: शोनक जी! आप समस्‍त क्रोध का त्‍याग करके मुझे उद्धार का कोई उपाय बताइये। ‘मैं ब्राह्मणों का महान भक्त रहा हूँ; इसीलिये इस समय पुन: आपसे निवेदन करता हूँ कि मेरे इस कुल का कुछ भाग अवश्य शेष रहना चाहिये। समूचे कुल का पराभव या विनाश नहीं होना चाहिये। ‘ब्राह्मणों के शाप दे देने पर हमारे कुल का कुछ भी शेष नहीं रह जायगा। हम अपने पाप के कारण न तो समाज में प्रशंसा पा रहे हैं न सजातीय बंधुओं के साथ एकमत ही हो रहे हैं; अत: अत्‍यंत खेद और विरक्ति को प्राप्‍त होकर हम पुन: वेदों का निश्‍चयात्‍मक ज्ञान रखने वाले आप-जैसे ब्राह्मणों से सदा यह कहेंगे कि जैसे निर्जन स्‍थान में रहने वाले योगीजन पापी पुरुषों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप लोग अपनी दया से ही हम-जैसे दुखी मनुष्‍यों की रक्षा करें। ‘जो क्षत्रिय अपने पाप के कारण यज्ञ के अधिकार से वंचित हो जाते हैं, वे पुलिंदों और शबरों के समान नरकों में ही पड़े रहते हैं। किसी प्रकार परलोक में उत्‍तम गति को नहीं पाते। ‘ब्रह्मन! शौनक! आप विद्वान हैं और मैं मूर्ख। आप मेरी बालबुद्धि पर ध्‍यान न देकर जैसे पिता पुत्र पर स्‍वभावत: संतुष्ट होता है, उसी प्रकार मुझ पर भी प्रसन्‍न होइये’।

शौनक ने कहा- यदि अज्ञानी मनुष्‍य अयुक्‍त कार्य भी कर बैठे तो इससे कौन-सी आश्‍चर्य की बात है; अत: इस रहस्‍य को जानने वाले बुद्धिमान पुरुषों को चाहिये कि वह प्राणियों पर क्रोध न करे। जो विशुद्ध बुद्धि की अट्टालिका पर चढ़कर स्‍वयं शोक से रहित हो दूसरे दुखी मनुष्‍यों के लिये शोक करता है, वह अपने ज्ञान बल से सब कुछ उसी प्रकार जान लेता है, जैसे पर्वत की चोटी पर खड़ा हुआ मनुष्‍य उस पर्वत के आस-पास की भूमि पर रहने वाले सब लोगों को देखता रहता है। जो प्राचीन श्रेष्ठ पुरुषों से विरक्‍त हो उनके दृष्टिपथ से दूर रहता है तथा उनके द्वारा धिक्‍कार को प्राप्‍त होता रहता है, उसे ज्ञान की उपलब्धि नहीं होता है और ऐसे पुरुष के लिये दूसरे लोग आश्‍चर्य भी नहीं करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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