महाभारत सभा पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-17

द्वादश (12) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य तथा युधिष्ठिर के प्रति राजा पाण्डु का संदेश

युधिष्ठिर बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ भगवान्! जैसा आपने मुझसे वर्णन किया है, उसके अनुसार सूर्य पुत्र यम की सभा में ही अधिकांश राजा लोगों की स्थिति बतायी गयी है। प्रभो! वरुण की सभा में तो अधिकांश नाग, दैत्येन्द्र, सरिताएँ और समुद्र ही बताये गये हैं। इसी प्रकार धनाध्यक्ष कुबेर की सभा में यक्ष, गुह्यक, राक्षस, गन्धर्व, अप्सरा तथा भगवान् शंकर की उपस्थिति का वर्णन हुआ है। ब्रह्मा जी की सभा में आपने महर्षियों, सम्पूर्ण देवगणों तथा समस्त शास्त्रों की स्थिति बतायी है। परंतु मुने! इन्द्र की सभा में आपने अधिकांश देवताओं की ही उपस्थिति का वर्णन किया है और थोड़े से विभिन्‍न गन्‍धर्वों एवं महर्षियों की भी स्थिति बतायी है। महामुने! महात्मा देवराज इन्द्र की सभा में आपने राजर्षियों में से एक मात्र हरिश्चन्द्र का ही नाम लिया है। नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले महर्षे! उन्होंने कौन-सा कर्म अथवा कौन- सी तपस्या की है, जिससे वे महान् यशस्वी होकर देवराज इन्द्र से स्पर्धा कर रहे हैं। विप्रवर! आपने पितृलोक में जाकर मेरे पिता महाभाग पाण्डु को भी देखा था, किस प्रकार वे आप से मिले थे? भगवान्! उन्होंने आप से क्या कहा? यह मुझे बताइये। सुवत! आप से यह सब कुछ सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।

नारद जी ने कहा- शक्तिशाली राजेन्द्र! तुमने जो राजर्षि हरिश्चन्द्र के विषय में मुझसे पूछा है, उस के उत्तर में मैं उन बुद्धिमान् नरेश का माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनो। इक्ष्वाकुकुल में त्रिशंकु नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वीर त्रिशंकु अयोध्या के स्वामी थे और वहाँ विश्वामित्र मुनि के साथ रहा करते थे। उनकी पत्नी का नाम सत्यवती था, वह केकय-कुल में उत्पन्न हुई थी। कुरुनन्दन! रानी सत्यवती के धर्मानुकुल गर्भ रहा। फिर समयानुसार जन्म मास प्राप्त होने पर महाभागा रानी ने एक निष्पाप पुत्र को जन्म दिया, उस का नाम हुआ हरिश्चन्द्र। वे त्रिशंकुकुमार ही लोक विख्यात राजा हरिश्चन्द्र कहे गये हैं। राजा हरिश्चन्द्र बड़े बलवान् और समस्त भूपालों के सम्राट थे। भूमण्डल सभी नरेश उनकी आज्ञा पालन करने के लिये सिर झुकाये खड़े रहते थे।

जनेश्वर! उन्होंने एक मात्र स्वर्ण विभूषित जैत्र नामक रथ पर चढ़कर अपने शस्त्रों के प्रताप से सातों द्वीपों पर विजय प्राप्त कर ली। महाराज! पर्वतों और वनों सहित इस सारी पृथ्वी को जीतकर राजा हरिश्चन्द्र ने राजसूय नामक महान् यज्ञ का अनुष्ठान किया। राजा की आज्ञा से समस्त भूपालों ने धन लाकर भेंट किये और उस यज्ञ में ब्राह्मणों को भोजन परोसन का कार्य किया। महाराज हरिश्चन्द्र ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस यज्ञ में याचकों को, जितना उन्होंने माँगा, उससे पाँच गुना अधिक धन दान किया। जब अग्निदेव के विसर्जन का अवसर आया, उस समय उन्होंने विभिन्न दिशाओं से आये हुए ब्राह्मणों को नाना प्रकार के धन एवं रत्न देकर तृप्त किया। नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ, मनोवान्छित वस्तुओं का पुरस्कार तथा रत्न राशि का दान देकर तृप्त एवं संतुष्ट किये हुए ब्राह्मणों ने राजा हरिश्चंद्र को आशीर्वाद दिये। इसीलिये वे अन्य राजाओें की अपेक्षा अधिक तेजस्वी और यशस्वी हुए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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