द्वयशीत्यधिकशततम (182) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति सूचित करने वाला वर्षाकाल आया, जो समस्त प्राणियों को सुख पहुँचाने वाला था। पाण्डव अभी द्वैतवन में ही थे, उसी समय वर्षा ऋतु आ गयी। तब काले-काले मेघ जोर-जोर से गर्जना करते हुए आकाश और दिशाओं में छा गये और दिन-रात निरन्तर जल की वर्षा करने लगे। वे वर्षा में तम्बू के समान जान पड़ते थे। उनकी संख्या सैकड़ों और हजारों तक पहुँच गयी थी। उन्होंने सूर्य के प्रभापंच को तो ढंक दिया था और विद्युत की निर्मल प्रभा धारण कर ली थी। धरती पर घास जम गयी। मतवाले डांस और सर्प आदि विचरने लगे। पृथ्वी जल से अभिषिक्त होकर शांत और सबके लिये मनोरम हो गयी। सब ओर इतना पानी भर गया कि ऊँचा-नीचा, समतल, नदी अथवा पेड़-पौधे आदि का पता नहीं चलता था। वर्षा ऋतु की नदियां बड़े वेग से छूटने वाले शीघ्रगामी बाणों की भाँति सनसनाती हुई चलती थीं। उनके जल में हिलोरें उठती रहती थीं और वे कितने ही काननों की शोभा बढ़ाती थी। वन के भीतर वर्षा की बौछारों से भीगते और बोलते हुए वराह, मृग और पक्षियों की भाँति-भाँति की बोलियां सुनायी देती थीं। पपीहा और मोर नर-कोकिलों के साथ आनन्दोन्मत्त होकर इधर-उधर उड़ने लगे और मेढ़क भी घमण्डों में आकर इधर-उधर कूदते और टर्र-टर्र करते थे। पाण्डव अभी मरु-प्रदेश में ही विचरते थे, तभी मेघों की गर्जना से गूंजती तथा अनेक प्रकार के रूप-रंग लिये प्रकट हुई मंगलमयी वर्षा ऋतु भी बती गयी। तत्पश्चात् आनन्दमयी शरद्-ऋतु का शुभागमन हुआ। क्रौंच और हंस आदि पक्षी चारों ओर विचरने लगे। वनों में और पर्वतीय शिखरों पर कास, कुश आदि बहुत बढ़ गये थे। नदियों का जल स्वच्छ हो गया। आकाश निर्मल होने से नक्षत्रों का आलोक और उज्ज्वल हो उठा। सब ओर मृग और पक्षी किलोल करने लगे। महात्मा पाण्डवों के लिये यह शरद्-ऋतु अत्यन्त सुखदायिनी थी। उस समय की रातें धूलरहित एवं निर्मल दिखायी देती थीं। बादलों के समान उनमें शीतलता थी। ग्रहों और नक्षत्रों के समुदाय तथा चन्द्रमा उनकी शोभा बढ़ाते हैं। पाण्डवों ने देखा, नदियां और पोखरियां कुमुदों तथा कमल-पुष्पों से अलंकृत हैं। उनमें शीतल जल भरा हुआ है और वे सबके लिये सुखदायिनी प्रतीत होती हैं। पावन तीर्थों से विभूषित सरस्वती नदी का तट आकाश के समान निर्मल दिखायी देता था। उसके दोनों किनारे बेंत की लहलहाती हुई लताओं से आच्छादित थे। वहाँ विचरते हुए पाण्डवों को बड़ा आनन्द मिलता था। वीर पाण्डव सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले थे। उन्होंने स्वच्छ जल से भरी हुई कल्याणमयी सरस्वती का दर्शन करके बड़े आनन्द का अनुभव किया। जनमेजय! उनके वहीं रहते समय पर्व की संधिवेला में कार्तिक की शरत्-पूर्णिमा की परम पुण्यमयी रात्रि आयी। उस समय भरतश्रेष्ठ पाण्डवों ने महान् सत्त्वगुण से सम्पन्न, पुण्यात्मा, तपस्वी मुनियों के साथ स्नान-दानादि के द्वारा उस उत्तम योग को पूर्णतः सफल बनाया। फिर कृष्ण पक्ष का उदय होने पर पाण्डव लोग धौम्य मुनि, सारथिगण तथा पाकशालाध्यक्ष के साथ काम्यकवन की ओर चल दिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेयसमस्यापर्व में काम्यकवन गमन विषयक एक सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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