महाभारत आदि पर्व अध्याय 194 श्लोक 1-15

चतुर्नवत्‍सधिकशततम (194) अध्‍याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: चतुर्नवत्‍सधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


द्रुपद और युधिष्ठिर की बातचीत तथा व्‍यास जी का आगमन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर महातेजस्‍वी, उदारचित्‍त पांचालराज द्रुपद ने अत्‍यन्‍त कान्तिमान कुन्‍तीपुत्र राजकुमार युधिष्ठिर को (अपने पास) बुलाकर ब्राह्मणोचित आतिथ्‍य-सत्‍कार के द्वारा उन्‍हें अपनाकर पूछा- ‘हमें कैसे ज्ञात हो कि आप लोग किस वर्ण के हैं? हम आपको क्षत्रिय, ब्राह्मण, गुणसम्‍पन्‍न वैश्‍य अथवा शुद्र क्‍या समझें? अथवा माया का आश्रय लेकर ब्राह्मणरुप से सब दिशाओं में विचरने वाले आप लोगों को हम कोई देवता मानें? जान पड़ता है, आप कृष्‍णा को पाने के लिये यहाँ दर्शक बनकर आये हुए देवता ही हैं। आप सच्‍ची बात हमें बता दें; क्‍योंकि आपके विषय में हमको बड़ा संदेह हो रहा है। परंतप! आपसे रहस्‍य की बात सुनकर क्‍या हमारे इस संशय का नाश और मन को संतोष होगा और क्‍या हमारा भाग्‍य उदय होगा? आप स्‍वेच्‍छा से ही सच्‍ची बात बतायें, राजाओं में इष्‍ट और पूर्त[1] की अपेक्षा सत्‍य की ही अधिक महीमा है; अत: असत्‍य नहीं बोलना चाहिये। देवताओं के समान तेजस्‍वी शत्रुसूदन! मैं आपकी बात सुनकर निश्‍चय ही विधिपूर्वक विवाह की तैयारी करुंगा।

युधिष्ठिर बोले- पांचालराज! आप उदास न हों, आपको प्रसन्‍न होना चाहिये। आपके मन में जो अभीष्‍ट कामना थी, वह निश्‍चय ही आज पूरी हुई है, इसमें संशय नहीं है। राजन्! हम लोग क्षत्रिय ही हैं, महात्‍मा पाण्‍डु के पुत्र हैं। मुझे कुन्‍ती का पुत्र समझिये, वे दोनों भीमसेन और अर्जुन हैं। राजन्! इन्‍हीं दोनों ने समस्‍त राजाओं के समूह में आपकी पुत्री को जीता है। उधर वे दोनों नकुल और सहदेव हैं। माता कुन्‍ती वहाँ गयी हैं, जहाँ राजकुमारी कृष्‍णा है। नरश्रेष्‍ठ! अब आपकी मानसिक चिन्‍ता निकल जानी चाहिये। हम सब लोग क्षत्रिय ही हैं। आपकी यह पुत्री कृष्‍णा कमलिनी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर को प्राप्‍त हुई है। महाराज! यह सब मैं आपसे सच्‍ची बात कह रहा हूँ। आप हमारे बड़े तथा परम आश्रय हैं।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर की ये बातें सुनकर महाराज द्रुपद की आंखों में हर्ष के आंसू छलक आये। वे आनन्‍द मग्न हो गये और (गला भर आने के कारण) उन युधिष्ठिर को तत्‍काल (कुछ) उत्‍तर न दे सके। शुत्रुसूदन द्रुपद ने (बड़े) यत्‍न से अपने (हर्ष के आवेश) को रोका और युधिष्ठिर को उनके कथन के अनुरुप ही उत्‍तर दिया। फिर उन धर्मात्‍मा पांचाल नरेश ने यह पूछा कि ‘आप लोग वारणागत नगर से किस प्रकार निकले?’ पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर वे सारी बातें उन्‍हें क्रमश: कह सुनायी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्‍मृतियों में इष्‍ट और पूर्त का परिचय इस प्रकार दिया गया है-
    अग्निहोत्रं तप: सत्‍यं वेदानां चानुपालनम्।
    आतिथ्‍यं वैश्‍वदेवं च इष्‍टमित्‍यभिधीयते।।
    वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च।
    अन्‍नप्रदानमारामा: पूर्तभित्‍यमिधीयते।।
    ‘अग्निहोत्र, तप, सत्‍यभाषण, वेदों की आज्ञा का निरन्‍तर पालन, अतिथियों का सत्‍कार तथा बलिवैश्‍यदेव कर्म- ये ‘इष्‍ट’ कहलाते हैं। बावली, कुआं, पोखरे आदि बनवाना, देवमन्दिर, निर्माण कराना, अन्‍न दान देना और बगीचे लगाना- इनका नाम पूर्त है।’

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