एकत्रिंश (31) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! इन तीनों लोकों में कौन-कौन-से मनुष्य पूज्य होते हैं? यह विस्तारपूर्वक बताइये। आपकी बातें सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती है। भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में विज्ञ पुरुष देवर्षि नारद और भगवान श्रीकृष्ण के संवादरूप इस इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, देवर्षि नारद जी हाथ जोड़कर उत्तम ब्राह्मणों की पूजा कर रहे थे। यह देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा- 'भगवन! आप किनको नमस्कार कर रहे है? प्रभो! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ नारद जी! आपके हृदय में जिनके प्रति बहुत बड़ा आदर है तथा आप भी जिनके सामने मस्तक झुकाते हैं, वे कौन हैं? यदि हमें सुनाना उचित समझें तो आप उन पूज्य पुरुषों का परिचय दीजिये।' नारद जी ने कहा- शत्रुमर्दन गोविंद! मैं जिनका पूजन करता हूँ, उनका परिचय सुनने के लिये इस संसार में आप से बढ़कर दूसरा कौन पुरुष अधिकारी है? जो लोग वरुण, वायु, आदित्य, पर्जन्य, अग्नि, रुद्र, स्वामी कार्तिकेय, लक्ष्मी, विष्णु, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी और सरस्वती को सदा प्रणाम करते हैं, प्रभो! मैं उन्हीं पूज्य पुरुषों को मस्तक झुकाता हूँ। वृष्णिसिंह! तपस्या ही जिनका धन है, जो वेदों के ज्ञाता तथा वेदोक्त धर्म का ही आश्रय लेने वाले हैं, उन परम पूजनीय पुरुषों की ही मैं सदा पूजा करता रहता हूँ। प्रभो! जो भोजन से पहले देवताओं की पूजा करते, अपनी झूठी बढ़ाई नहीं करते, संतुष्ट रहते और क्षमाशील होते हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। युदनन्दन! जो विधिपूर्वक यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं, जो क्षमाशील जितेन्द्रिय और मन को वश में करने वाले हैं और सत्य धर्म पृथ्वी तथा गौओं की पूजा करते हैं, उन्हीं को मैं प्रणाम करता हूँ। यादव! जो लोग वन में फल-मूल खाकर तपस्या मे लगे रहते हैं, किसी प्रकार का संग्रह नहीं रखते और क्रियानिष्ठ होते हैं, उन्हीं को मैं मस्तक झुकाता हूँ। जो माता-पिता, कुटुम्बीजन एवं सेवक आदि भरण-पोषक के योग्य व्यक्तियों का पालन करने में समर्थ हैं, जिन्होंने सदा अतिथि सेवा का व्रत ले लिया है तथा जो देवयज्ञ से बचे हुए अन्न का ही भोजन करते हैं, मैं उन्हीं के सामने नतमस्तक होता हूँ। जो वेद का अध्ययन करके दुर्धर्ष और बोलने में कुशल हो गये हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और यज्ञ कराने तथा वेद पढ़ाने में लगे रहते हैं, उनकी मैं सदा पूजा किया करता हूँ। जो नित्य-निरन्तर समस्त प्राणियों पर प्रसन्नचित्त रहते और सबेरे से दोपहर तक वेदों के स्वाध्याय में संलग्न रहते हैं, उनका मैं पूजन करता हूँ। युदुकुलतिलक! जो गुरु को प्रसन्न रखने और स्वाध्याय करने के लिये सदा यत्नशील रहते हैं, जिनका व्रत कभी भंग नहीं होने पाता, जो गुरुजनों की सेवा करते और किसी के भी दोष नहीं देखते, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। यदुनन्दन! जो उत्तम व्रत का पालन करने वाले मननशील, सत्यप्रतिज्ञ तथा हव्य-कव्य को नियमित रूप से चलाने वाले ब्राह्मण हैं, उनको मैं मस्तक झुकाता हूँ। यदुकुलभूषण! जो गुरुकुल में रहकर भिक्षा से जीवन निर्वाह करते हैं, तपस्या से जिनका शरीर दुर्बल हो गया है और जो कभी धन तथा सुख की चिन्ता नहीं करते हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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