महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-19

सप्तम (7) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करते हुए अपने लिए राज्य छोड़कर वन में चले जाने का प्रस्ताव करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन् धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर चित्त शोक से व्याकुल हो उठा था। वे महारथी कर्ण को याद करके दुःख से संतत हो शोक में डूब गये। दुःख और शोक से आंविष्ट हो वे बारंबार लंबी सांस खींचने लगे और अर्जुन को देखकर शोक से पीड़ित हो इस प्रकार बोले। माँगते हुए अपना जीवन-निर्वाह कर लेते तो आज अपने कुटुम्ब को निर्वेश करके हम इस दुर्दशा को प्राप्त नहीं होते। हमारे शत्रुओं का मनोरथ पूर्ण हुआ (क्योंकि वे हमारे कुल का विनाश देखकर प्रसन्न होंगे)। कौरवों का प्रयोजन तो उनके जीवन के साथ ही समाप्त हो गया। आत्मीयजनों को मारकर स्वयं ही अपनी हत्या करके हम कौन-सा धर्म का फल प्राप्त करेंगे? क्षत्रियों के आचार, बल, पुरुषार्थ और अमर्श को धिक्कार है! जिनके कारण हम ऐसी विपत्तियों में पड़ गये।

क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम, बाहर-भीतर की शुद्धि, वैराग्य, ईर्ष्या का अभाव, अहिंसा और सत्य भाषण- ये वन वासियों के नित्य धर्म ही श्रेष्ठ हैं। हम लोग तो लोभ और मोह के कारण राज्य लाभ के सुख का अनुभव करने की इच्छा से दम्भ और अभिमान का आश्रय लेकर इस दुर्दशा में फँस गये हैं। जब हमने पृथ्वी पर विजय की इच्छा रखने वाले अपने बन्धु-बान्धवों को मारा गया देख लिया, तब हमें इस समय तीनों लोकों का राज्य देकर भी कोई प्रसन्न नहीं कर सकता। हाय! मह लोगो ने इस तुच्छ पृथ्वी के लिये अवध्य राजाओं की भी हत्या की और अब उन्हें छोड़कर बन्धु-बान्धवों से हीन हो अर्थ-भ्रष्ट की भाति जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जैसे मांस के लोभी कुत्तों को अशुभ की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार राज्य में आसक्त हुए हम लोगों को भी अनिष्ट प्राप्त हुआ है। अतः हमारे लिये मांस-तुल्य राज्य को पाना अभीष्ट नहीं है, उसका परित्याग ही अभीष्ट होना चाहिये।

ये जो हमारे सगे-सम्बन्धी मारे गये हैं, इनका परित्याग तो हमें समस्त पृथ्वी, राशि-राशि सुवर्ण और समूचे गाय-घोडे़ पाकर भी नहीं करना चाहिये था। वे काम और क्रोध के वशीभूत थे, हर्ष और रोष से मरे हुए थे, अतः मृत्युरूपी रथ पर सवार हो यमलोक में चले गये। सभी पिता तपस्या, ब्रह्मचर्य-पालन, सत्यभाषण तथा तितिक्षा आदि साधनों द्वारा अनेक कल्यामय गुणों से युक्त बहुत से पुत्र पाना चाहते हैं। इसी प्रकार सभी माताएं उपवास, यज्ञ, ब्रत, कौतुक और मंगलमय कृत्यों द्वारा उत्तम पुत्र की इच्छा रखकर दस महीनों तक अपने गर्भों का भरण-पोषण करती हैं। उन सबका यही उद्देश्य होता है कि यदि कुशलपूर्वक बच्चे पैदा होंगे, पैदा होने पर यदि जीवित रहेंगे तथा बलवान् होकर यदि सम्भावित गुणों से सम्पन्न होंगे तो हमें इहलोक और परलोक में सुख देंगे। इस प्रकार वे दीन माताएँ फल की आकांक्षा रखती हैं। परंतु उनका यह उद्योग सर्वथा निष्फल हो गया; क्योंकि हम लोगों ने उन सब माताओं के नवयुवक पुत्रों को, जो विशुद्ध सुवर्णमय कुण्डलों से अलंकृत थे, मार डाला है। वे इस भूलोक के भोगों के उपभोग का अवसर न पाकर देवताओं और पितरों का ऋण उतारे बिना ही यमलोक में चले गये। मां! इन राजाओं के माता-पिता जब इनके द्वारा उपर्जित धन और रत्न आदि के उपभोग की आशा करने लगे, तभी वे मारे गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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