षोडशाधिकद्विशततम (216) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
महाभारत: वन पर्व: षोडशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
धर्मव्याध कहता है- विप्रवर! जब इस प्रकार ऋषि ने शाप दे दिया, तब मैंने कहा- 'भगवन्! मेरी रक्षा कीजिये-मुझे उबारिये। मुने! मैंने अनजान में यह आज अनुचित काम कर डाला है। मेरा सब अपराध क्षमा कीजिये और मुझ पर प्रसन्न हो जाइये।' ऐसा कहकर उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा की। ऋषि ने कहा- 'यह शाप टल नहीं सकता। ऐसा होकर ही रहेगा, इसमें संशय नहीं है। परंतु मेरा स्वभाव क्रूर नहीं है, इसलिये मैं तुझ पर आज कुछ अनुग्रह करता हूँ। तू शूद्रयोनि में रहकर धर्मज्ञ होगा और माता-पिता की सेवा करेगा। इसमें तनिक भी संदेह के लिये स्थान नहीं है। उस सेवा से तुझे सिद्धि और महत्ता प्राप्त होगी। तू पूर्वजन्म की बातों को स्मरण रखने वाला होगा और अन्त में स्वर्गलोक में जायेगा। शाप का निवारण हो जाने पर तू फिर ब्राह्मण होगा।' इस प्रकार उन उग्र तेजस्वी महर्षि ने पूर्वकाल में मुझे शाप दिया था। नरश्रेष्ठ! फिर उन्होंने ही मेरे ऊपर अनुग्रह किया। द्विजश्रेष्ठ! तदनन्तर मैंने उनके शरीर से बाण निकाला और उन्हें उनके आश्रम पर पहुँचा दिया। परंतु उनके प्राण नहीं गये। विप्रवर! पूर्वजन्म में मेरे ऊपर जो कुछ बीता था, वह सब मैंने आप से कह सुनाया। अब इस जीवन के पश्चात् मुझे स्वर्गलोक में जाना है। ब्राह्मण बोला- महामते! मनुष्य इसी प्रकार दु:ख और सुख पाते रहते हैं। इसके लिये आपको चिन्ता नहीं करनी चाहिये। जिसके फलस्वरूप आपको अपने पूर्वजन्म की बातों का ज्ञान बना हुआ है, वह पिता-माता की सेवारूप कर्म दूसरों के लिये दुष्कर है; किंतु आपने उसे सम्पन्न कर लिया है। आप लोकवृत्तान्त का तत्व जानते हैं और सदा धर्म में तत्पर रहते हैं। विद्वन्! आपको जो यह कर्मदोष (दूषित कर्म) प्राप्त हुआ है, वह आपके पूर्वजन्म के कर्म का फल है। इस जन्म के नहीं। अत: कुछ काल तक और इसी रूप में रहें। फिर आप ब्राह्मण हो जायेंगे। मैं तो अभी आपको ब्राह्मण मानता हूँ। आपके ब्राह्मण होने में संदेह नहीं है। जो ब्राह्मण होकर भी पतन के गर्त में गिराने वाले पापकर्मों में फंसा हुआ है और प्राय: दुष्कर्मपरायण तथा पाखंडी है, वह शूद्र के समान है। इसके विपरीत जो शूद्र होकर भी (शम) दम, सत्य तथा धर्म का पालन करने के लिये सदा उद्यत रहता है, उसे मैं ब्राह्मण ही मानता हूं; क्योंकि मनुष्य सदाचार से ही द्विज होता है। कर्मदोष से ही मनुष्य विषम एवं भयंकर दुर्गति में पड़ जाता है। परंतु नरश्रेष्ठ! मैं तो समझता हूँ कि आपके सारे कर्मदोष सर्वथा नष्ट हो गये हैं। अत: आपको अपने विषय में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। आपके जैसे ज्ञानी पुरुष, जो लोकवृत्तान्त के अनुवर्तन का रहस्य जानने वाले तथा नित्य धर्मपरायण हैं, कभी विषादग्रस्त नहीं होते हैं। धर्मव्याध ने कहा- ज्ञानी पुरुष शारीरिक कष्ट का औषधसेवन द्वारा नाश करे और विवेकशील बुद्धि द्वारा मानसिक दु:ख को नष्ट करे। यही ज्ञान की शक्ति है। बुद्धिमान मनुष्य को बालकों के समान शोक या विलाप नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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