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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
विदुरजी का नीतियुक्त उपदेश
- विदुर जी कहते हैं- राजन! जब कोई[1] वृद्ध पुरुष निकट आता है, उस समय नवयुवक व्यक्ति के प्राण ऊपर को उठने लगते हैं; फिर जब वह वृद्ध के स्वागत में उठकर खड़ा होता है और प्रणाम करता है, तब प्राणों को पुन: वास्तविक स्थिति में प्राप्त करता है। (1)
- धीर पुरुष को चाहिये, जब कोई पुरुष अतिथि के रूप में घर पर आवे, तब पहले आसन देकर एवं जल लाकर उसके चरण पखारे, फिर उसकी कुशल पूछकर अपनी स्थिति बतावे, तदनंतर आवश्यकता समझकर अन्न भोजन करावे। (2)
- वेदवेत्ता ब्राह्मण जिसके घर दाता के लोभ, भय या कंजूसी के कारण जल, मधुपर्क और गौ को नहीं स्वीकार करता, श्रेष्ठ पुरुषों ने उस गृहस्थ का जीवन व्यर्थ बताया है। (3)
- वैद्य, चीरफाड़ करने वाला[2], ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट, चोर, क्रूर, शराबी, गर्भ हत्यारा, सेना जीवी और वेद विक्रेता- ये यद्यपि पैर धोने के योग्य नहीं हैं, तथापि यदि अतिथि होकर आवें तो विशेष प्रिय यानि आदर के योग्य होते हैं। (4)
- नमक, पका हुआ अन्न, दही, मधु, तेल, घी, तिल, मांस, फल, साग, लाल कपड़ा, सब प्रकार की गंध और गुड़ इतनी वस्तुएं बेचने योग्य नहीं है। (5)
- जो क्रोध न करने वाला, लोष्ट, पत्थर और सुवर्ण को एक-सा समझने वाला, शोकहीन, संधि-विग्रह से रहित, निंदा-प्रशंसा से शून्य, प्रिय-अप्रिय का त्याग करने वाला तथा उदासीन है, वही भिक्षुक[3] है। (6)
- जो नीवार[4], कंद-मूल, इङ्गुदीफल और साग खाकर निर्वाह करता है, मन को वश में रखता है, अग्निहोत्र करता है, वन में रहकर भी अतिथि सेवा में सदा सावधान रहता है, वही पुण्यात्मा तपस्वी[5] श्रेष्ठ माना गया है। (7)
- बुद्धिमान पुरुष की बुराई करके इस विश्वास पर निश्चिंत न रहे कि मैं दूर हूँ। बुद्धिमान की[6] बांहें बड़ी लंबी होती हैं, सताया जाने पर वह उन्हीं बांहों से बदला लेता है। (8)
- जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करे ही नहीं; किंतु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी अधिक विश्वास न करे। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है, वह मूल का भी उच्छेद कर डालता है। (9)
- मनुष्य को चाहिये कि वह ईर्ष्यारहित, स्त्रियों का रक्षक, सम्पत्ति का न्यायपूर्वक विभाग करने वाला, प्रियवादी, स्वच्छ तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलने वाला हो, परंतु उनके वश में कभी न हो। (10)
- स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही गयी हैं। ये अत्यंत सौभाग्यशालिनी, आदर के योग्य, पवित्र तथा घर की शोभा हैं; अत: इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए। (11)
- अन्त:पुर की रक्षा का कार्य पिता को सौंप दे, रसोई-घर का प्रबन्ध माता के हाथ में दे, गौओं की सेवा में अपने समान व्यक्ति को नियुक्त करे और कृषि का कार्य स्वयं ही करे। इसी प्रकार सेवकों द्वारा वाणिज्य-व्यापार करे और पुत्रों के द्वारा ब्राह्मणों की सेवा करे। (12)
- जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा पैदा होता है। इनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में शान्त हो जाता है। (13)
- अच्छे कुल में उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी, क्षमाशील और विकारशून्य संत पुरुष सदा काष्ठ में अग्नि की भाँति शान्तभाव से स्थित रहते हैं। (14)
- जिस राजा की मन्त्रणा को उसके बहिरंग एवं अन्तरंग कोई भी मनुष्य नहीं जानते, सब ओर दृष्टि रखने वाला वह राजा चिरकाल तक ऐश्वर्य का उपभोग करता है। (15)
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