महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 56 श्लोक 1-16

षट्पंचाशत्तम (56) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षट्पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


उत्तंक की गुुरुभक्ति का वर्णन, गुरुपुत्री के साथ उत्तंक का विवाह, गरु पत्नी की आज्ञा से दिव्यकुण्डल लाने के लिय उत्तंक का राजा सौदास के पास जाना

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन! महात्मा उत्तंक मुनि ने ऐसी कौन सी तपस्या की थी, जिससे वे सबकी उत्पत्ति के हेतु भूत भगवान विष्णु को भी शाप देने का संकल्प कर बैठे? वैशम्पायन जी ने कहा- जनमेजय! उत्तंक मुनि बड़े भारी तपस्वी, तेजस्वी और गुरुभक्त थे। उन्होंने जीवन में गुरु के सिवा दूसरे किसी देवता की आराधान नहीं की थी। भरतनन्दन! जब वे गुरुकुल में रहते थे, उन दिनों सभी ऋषिकुमारों के मन में यह अभिलाषा होती थी कि हमें भी उत्तंक के समान गरुभक्ति प्राप्त हो। जनमेजय! गौतम के बहुत से शिष्य थे, परंतु उनका प्रेेम और स्नेह सबसे अधिक उत्तंक में ही था। उत्तंक के इन्द्रिय संयम, बाहर-भीतर की पवित्रता, पुरुषार्थ, कर्म और उत्तमोत्तम सेवा से गौतम बहुत प्रसन्न रहते थे।

उन महर्षि ने अपने सहस्रों शिष्यों को पढ़ाकर घर जाने की आज्ञा दे दी, परंतु उत्तंक पर अधिक प्रेेम होने के कारण वे उन्हें घर जाने की आज्ञा नहीं देना चाहते थे। तात! क्रमश: उन महामुनि उत्तंक को वृद्धावस्था प्राप्त हुई। किंतु वे गुरुवल्सल महर्षि यह नहीं जान सके कि मेरा बुढ़ापा आ गया। राजेन्द्र! एक दिन उत्तंक मुनि लकड़ियाँ लाने के लिये वन मे गये और वहाँ से काठ का बहुत बड़ा बोझ उठा लाये। शत्रुदमन नरेश! बोझ भारी होने के कारण वे बहुत थक गये। उनका शरीर लकड़ियों के भार से दब गया था। वे भूख से पीड़ित हो रहे थे। जब आश्रम पर आकर उस बोझ को जमीन पर गिराने लगे, उस समय चाँदी के तर की भाँति सफेद रंग की उनकी जटा लकड़ी में चिपक गयी थी, जो उन लकड़ियों के साथ ही जमीन पर गिर पड़ी। भारत! भार से तो वे पिस ही गये थे, भूख ने भी उन्हें व्याकुल कर दिया था। अत: अपनी उस अवस्था को देखकर वे उस समय आर्त स्वर से रोने लगे। तब कमल दर के समान प्रफुल्लमुख वाली विशाललोचना परम सुन्दरी धर्मज्ञ गुरुपुत्री ने पिता की आज्ञा पाकर विनीत भाव से सिर झुकाया वहाँ आयी और अपने हाथों में उसने मुनि के आँसू ग्रहण कर लिये।

उन अश्रुबिन्दुओं से उसके दोनों हाथ जल गये और आँसुओं सहित पृथ्वी से जा लगे। परंतु पृथ्वी भी उन गिरते हुए अश्रुबिन्दुओं के धारण करने में असमर्थ हो गयी। फिर गौतम ने प्रसन्नचित्त होकर विप्रवर उत्तंक से पूछा- ‘बेटा! आज तुम्हारा मन शोक से व्याकुल क्यों हो रहा है? मैं इसका यथार्थ कारण सुनना चाहता हूँ। ब्रह्मर्षे! तुम नि:संकोच होकर सारी बातें बताओ।’

उत्तंक ने कहा- गुरुदेव! मेरा मन सदा आप में लगा रहा। आप ही का प्रिय करने की इच्छा से मैं निरन्तर आपकी सेवा में संलग्न रहा, मेरा सम्पूर्ण अनुराग आप ही में रहा है और आप ही की भक्ति में तत्पर रहकर मैंने न तो लौकिक सुख को जाना और न मुझे आये हुए इस बुढ़ापा का ही पता चला। मुझे यहाँ रहते हुए सौ वर्ष बीत गये तो भी आपने मुझे घर जाने की आज्ञा नहीं दी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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