त्र्यधिकशततम (103) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्र्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
देवता कहते हैं– 'प्रभो! जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-इन चार भेदों वाली सम्पूर्ण प्रजा आपकी कृपा से ही वृद्धि को प्राप्त होती है। अभ्युदयशील होने पर वे प्रजाएं ही हव्य और कव्यों द्वारा देवताओं का भरण-पोषण करती हैं। इसी प्रकार सब लोग एक-दूसरे के सहारे उन्नति करते हैं। आपकी ही कृपा से सब प्राणी उद्वेगरहित जीवन बिताते और आपके द्वारा ही सर्वथा सुरक्षित रहते हैं। भगवन्! मनुष्यों के समक्ष यह बड़ा भारी भय उपस्थित हुआ है। न जाने कौन रात में आकर इन ब्राह्मणों का वध कर रहा है। ब्राह्मणों के नष्ट होने पर सारी पृथ्वी नष्ट हो जायेगी और पृथ्वी का नाश होने पर स्वर्ग भी नष्ट हो जायेगा।' भगवान् विष्णु बोले- 'देवताओ! प्रजा के विनाश का जो कारण उपस्थित हुआ है, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं तुम लोगों को भी बता रहा हूँ, निश्चिंत होकर सुनो। दैत्यों का एक अत्यन्त भयंकर दल है, जो कालकेय नाम से विख्यात है। उन दैत्यों ने वृत्रासुर का सहारा लेकर सारे संसार में तहलका मचा दिया था। परम बुद्धिमान इन्द्र के द्वारा वृत्रासुर को मारा गया देख वे अपने प्राण बचाने के लिये समुद्र में जाकर छिप गये हैं। नाक और ग्राहों से भरे हुए भयंकर समुद्र में घुसकर वे सम्पूर्ण जगत् का संहार करने के लिये रात में निकलते तथा यहाँ ऋषियों की हत्या करते हैं। उन दानवों का संहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे दुर्गम समुद्र के आश्रय में रहते हैं। अत: तुम लोगों को समुद्र को सुखाने का विचार करना चाहिए। महर्षि अगस्त्य के सिवा दूसरा कौन है, जो समुद्र का शोषण करने में समर्थ हो। समुद्र को सुखाये बिना वे दानव काबू में नहीं आ सकते।' भगवान विष्णु की कही हुई यह बात सुनकर देवता ब्रह्माजी की आज्ञा ले अगस्त्य के आश्रम पर गये। वहाँ उन्होंने मित्रावरुण के पुत्र महात्मा अगस्त्य जी को देखा। उनका तेज उद्भासित हो रहा था। जैसे देवता लोग ब्रह्माजी के पास बैठते हैं, उसी प्रकार बहुत-से ऋषि–मुनि उनके निकट बैठे थे। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले मित्रावरुणनन्दन तपोराशि महात्मा अगस्त्य आश्रम में ही विराजमान थे। देवताओं ने समीप जाकर उनके अद्भुत कर्मों का वर्णन करते हुए स्तुति की। देवता बोले– भगवन्! पूर्वकाल में राजा नहुष के अन्याय से संतप्त हुए लोकों की आपने ही रक्षा की थी। आपने ही उस लोककण्टक नरेश को देवेन्द्र पद तथा स्वर्ग से नीचे गिरा दिया था। पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्य सूर्यदेव पर क्रोध करके जब सहसा बढ़ने लगा, तब आपने ही उसे रोका था। आपकी आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए विन्ध्यगिरि आज भी बढ़ नहीं रहा है। विन्ध्यगिरि के बढ़ने से जब सारे जगत् में अन्धकर छा गया और सारी प्रजा मृत्यु से पीड़ित होने लगी, उस समय आपको ही अपना रक्षक पाकर सब ने अत्यन्त हर्ष का अनुभव किया था। सदा आप ही हम भयभीत देवताओं के लिये आश्रय होते आये हैं। अत: इस समय भी संकट में पड़कर हम आप से वर मांग रहे हैं, क्योंकि आप ही वर देने के योग्य हैं।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में अगस्त्य माहात्म्य वर्णन विषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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