द्वाद्वश (12) अध्याय: सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)
महाभारत: सौप्तिक पर्व:द्वाद्वश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
उन्हें अपने दुरात्मा पुत्र की चपलता ज्ञात थी, अतः सब धर्मों के ज्ञाता आचार्य ने अपने पुत्र को इस प्रकार शिक्षा दी- "बेटा! बड़ी से बड़ी आपत्ति में पड़ने पर भी तुम्हें रणभूमि में विशेषतः मनुष्यों पर इस अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये।" नरश्रेष्ठ! अपने पुत्र से ऐसा कहकर गुरु द्रोण पुनः उससे बोले- "बेटा! मुझे संदेह है कि तुम कभी सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर नहीं रहोंगे।" पिता के इस अप्रिय वचन को सुन और समझकर दुष्टात्मा द्रोणपुत्र सब प्रकार के कल्याण की आशा छोड़ बैठा और बड़े शोक से पृथ्वी पर विचरने लगा। भरतनन्दन! कुरुश्रेष्ठ! तदनन्तर जब तुम वन में रहते थे, उन्हीं दिनों अश्वत्थामा द्वारका में आकर रहने लगा। वहाँ वृष्णिवंशियों ने उसका बड़ा सत्कार किया। एक दिन द्वारका में समुद्र के तट पर रहते समय उसने अकेले ही मुझ अकेले के पास आकर हँसते हुए से कहा- "दर्शार्हनन्दन! श्रीकृष्ण! भरतवंश के आचार्य मेरे सत्यपराक्रमी पिता ने उस तपस्या करके महर्षि अगस्त्य से जो ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था, वह देवताओं और गन्धर्वों द्वारा सम्मानित अस्त्र इस समय जैसा मेरे पिता के पास है, वैसा ही मेरे पास भी है, अतः यदुश्रेष्ठ! मुझसे वह दिव्य अस्त्र लेकर रणभूमि में शत्रुओं का नाश करने वाला अपना चक्र नामक अस्त्र मुझे दे दीजिये।" भरतश्रेष्ठ! वह हाथ जोड़कर बड़े प्रयत्न के द्वारा मुझसे अस्त्र की याचना कर रहा था, तब मैंने भी प्रसन्नतापूर्वक ही उससे कहा- "ब्रह्मन! देवता, दानव, गन्धर्व, मनुष्य, पक्षी और नाग ये सब मिलकर मेरे पराक्रम के सौवे अंश की भी समानता नहीं कर सकते। यह मेरा धनुष है, यह शक्ति है, यह चक्र है और यह गदा है। तुम जो जो अस्त्र मुझसे लेना चाहते हो, वही वह तुम्हें दिये देता हूँ। तुम मुझे जो अस्त्र देना चाहते हो, उसे दिये बिना ही रणभूमि में मेरे जिस आयुध को उठा अथवा चला सको, उसे ही ले लो।" तब उस महाभाग ने मेरे साथ स्पर्धा रखते हुए मुझसे मेरा वह लोहमय चक्र मांगा, जिसकी सुन्दर नाभि में वज्र लगा हुआ है तथा जो एक सहस्र फरसे से सुशोमित होता है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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