अष्टादश (18) अध्याय: सौप्तिक पर्व
महाभारत: सौप्तिक पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
श्रीभगवान बोले- तदनन्तर सत्ययुग बीत जाने पर देवताओं ने विधिपूर्वक भगवान का यजन करने की इच्छा से वैदिक प्रमाण के अनुसर यज्ञ की कल्पना की। तत्पश्चात उन्होंने यज्ञ के साधनों, यज्ञभाग के अधिकारी देवताओं और यज्ञोपयोगी द्रव्यों की कल्पना की। नरेश्वर! उस समय देवता भगवान रुद्र को यथार्थ रुप से नहीं जानते थे; इसलिये उन्होंने ’स्थाणु’ नामधारी भगवान शिव के भाग की कल्पना नहीं की। जब देवताओं ने यज्ञ में उनका कोई भाग नियत नहीं किया, तब व्याघ्रचर्मधारी भगवान शिव ने उनके दमन के लिये साधन जुटाने की इच्छा रखकर सबसे पहले धनुष की सृष्टि की। लोकयज्ञ, क्रियायज्ञ, सनातन गृहयज्ञ, पंचभूत यज्ञ और मनुष्ययज्ञ- ये पाँच प्रकार के यज्ञ हैं। इन्हीं से यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है। मस्तक पर जटाजूट धारण करने वाले भगवान शिव ने लोकयज्ञ और मनुष्ययज्ञों से एक धनुष का निर्माण किया। उनका वह धनुष पाँच हाथ लंबा बनाया गया था। भरतनन्दन! वषट्कार उस धनुष की प्रत्यञ्चा था। यज्ञ के चारों अंग स्नान, दान होम और जप उन भगवान शिव के लिये कवच हो गये। तदन्तर कुपित हुए महादेव जी उस धनुष को लेकर उसी स्थान पर आये, जहाँ देवता लोग यज्ञ कर रहे थे। उन ब्रह्मचारी एवं अविनाशी रुद्र को हाथ में धनुष उठाये देख पृथ्वी देवी को बड़ी व्यथा हुई और पर्वत भी काँपने लगे। हवा की गति रुक गयी, आग समिधा और घी आदि से जलाने की चेष्टा की जाने पर भी प्रज्वलित नहीं होती थी और आकाश में नक्षत्रों का समूह उद्विग्न होकर घूमने लगा। सूर्य भी पूर्णत: प्रकाशित नहीं हो रहे थे, चन्द्रमण्डल भी श्रीहीन हो गया था तथा सारा आकाश अन्धकार से व्याप्त हो रहा था। उससे अभिभूत होकर देवता किसी विषय को पहचान नहीं पाते थे, वह यज्ञ भी अच्छी तरह प्रतीत नहीं होता था। इससे सारे देवता भय से थर्रा उठे। तदनन्तर रुद्रदेव ने भयंकर बाण के द्वारा उस यज्ञ के हृदय में आघात किया। तब अग्नि सहित यज्ञ मृग का रुप धारण करके वहाँ से भाग निकला। वह उसी रुप में पहुँचकर (मृगशिरा नक्षत्र के रुप में) प्रकाशित होने लगा। युधिष्ठिर! आकाशमण्डल में रुद्रदेव उस दशा में भी (आर्द्रा नक्षत्र के रुप में) उसके पीछे लगे रहते हैं। यज्ञ के वहाँ से हट जाने पर देवताओं की चेतना लुप्त-सी हो गयी। चेतना लुप्त होने से देवताओं को कुछ भी प्रतीत नहीं होता था। उस समय कुपित हुए त्रिनेत्रधारी भगवान शिव ने अपने धनुष की कोटि से सविता की दोनों बाँहें काट डालीं, भग की आँखें फोड़ दी और पूषा के सारे दाँत तोड़ डाले। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और यज्ञ के सारे अंश वहाँ से पलायन कर गये। कुछ वहीं चक्कर काटते हुए प्राणहीन-से हो गये। वह सब कुछ दूर हटाकर भगवान नीलकण्ठ ने देवताओं का उपहास करते हुए धनुष की कोटि का सहारा ले उन सब को रोक दिया। तत्पश्चात देवताओं द्वारा प्रेरित हुई वाणी ने महादेव जी के धनुष की प्रत्यञ्चा काट डाली। राजन! सहसा प्रत्यञ्चा कट जाने पर वह धनुष उछलकर गिर पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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