चतुर्थदश (14) अध्याय: सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)
महाभारत: सौप्तिक पर्व: चतुर्थदश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! दशार्हनंदन महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण अश्वत्थामा चेष्ठा से ही उसके मन का भाव पहले ही ताड़ गये थे। उन्होंने अर्जुन से कहा- ‘अर्जुन! अर्जुन! पाण्डुनंदन! आचार्य द्रोण का उपदेश किया हुआ जो दिव्यास्त्र तुम्हारे हृदय में विद्यमान है, उसके प्रयोग का अब यह समय आ गया है। भरतनंदन! भाइयों की और अपनी रक्षा के लिए तुम भी युद्ध में इस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करो। अश्वत्थामा के अस्त्र का निवारण इसी के द्वारा हो सकता है।' भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाण्डुपुत्र अर्जुन धनुष-बाण हाथ में लेकर तुरंत ही रथ से नीचे उतर गये। शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन ने सबसे पहले यह कहा कि ‘आचार्यपुत्र का कल्याण हो।’। तत्पश्चात अपने और सम्पूर्ण भाईयों के लिए मंगलकामना करके उन्होंने देवताओं और सभी गुरुजनों को नमस्कार किया। इसके बाद ‘इस ब्रह्मास्त्र से शत्रुओं का ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाये’ ऐसा संकल्प करके सबके कल्याण की भावना करते हुए अपना दिव्य अस्त्र छोड़ दिया। गाण्डीवधारी अर्जुन के द्वारा छोड़ा गया वह ब्रह्मास्त्र सहसा प्रज्वलित हो उठा। उससे प्रलयाग्नि के सामन बड़ी-बड़ी लपटें उठने लगीं। इसी प्रकार प्रचण्ड तेजस्वी द्रोणपुत्र का वह अस्त्र भी तेजोमंडल से घिरकर बड़ी-बड़ी ज्वालाओं के साथ जलने लगा। उस समय बारम्बार वज्रपात के समान शब्द होने लगे, आकाश से सहस्त्रों उल्काएं टूट-टूटकर गिरने लगी और समस्त प्राणियों पर महान भय छा गया। सारा आकाश आग की प्रचण्ड ज्वालाओं से व्याप्त हो उठा और वहाँ जोर-जोर से शब्द होने लगा। पर्वत, वन और वृक्षों सहित सारी पृथ्वी हिलने लगी। उन दोनों अस्त्रों के तेज समस्त लोकों को संतप्त करते हुए वहाँ स्थित हो गये। उस समय वहाँ सम्पूर्ण भूतों के आत्मा नारद तथा भरतवंश के पितामह व्यास इन दो महर्षियों ने एक साथ दर्शन दिया। सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता तथा समस्त प्राणियों के हितैषी वे दोनों परम तेजस्वी मुनि अश्वत्थामा और अर्जुन- इन दोनों वीरों को शान्त करने के लिए इनके प्रज्वलित अस्त्रों के बीच में खडे़ हो गये। उन अस्त्रों के बीच में आकर वे दुर्धर्ष एवं यशस्वी महर्षि प्रवर दो प्रज्ज्वलित अग्नियों के समान वहाँ स्थित हो गये। कोई भी प्राणी उन दोनों का तिरस्कार नहीं कर सकता था। देवता और दानव दोनों ही उनका सम्मान करते थे। वे समस्त लोकों के हित की कामना से उन अस्त्रों के तेज को शान्त कराने के लिए वहाँ आये थे। उन दोनों ऋषियों ने उन दोनों वीरों से कहा- 'वीरो! पूर्वकाल में भी जो बहुत से महारथी हो चुके हैं, वे नाना प्रकार के शस्त्रों के जानकार थे, परंतु उन्होंने किसी प्रकार भी मनुष्यों पर इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया था। तुम दोनों ने यह महान विनाशकारी दु:साहस क्यों किया है।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्तर्गत ऐसीक पर्व में अर्जुन के द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग विषयक चौदहवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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