महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-12

नवम (9) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


बृहस्पति का इन्द्र से अपनी चिन्ता का कारण बताना, इन्द्र की आज्ञा से अग्रिदेव का मरुत्त के पास उनका संदेश लेकर जाना और संवर्त के भय से पुन
लौटकर इन्द्र से ब्रह्म बल की श्रेष्ठता बताना

इन्द्र ने कहा- बृहस्पते! आप सुख से सोते हैं न? आपको मन के अनुकूल सेवक प्राप्त हैं न? विप्रवर! आप देवताओं के सुख की कामना तो रखते हैं न? क्या देवता आपका पूर्णरूप से पालन करते हैं?

बृहस्पति जी बोले- देवराज! मैं सुख से शय्या पर सोता हूँ, मुझे मरे मन के अनुकूल सेवक प्राप्त हुए हैं। मैं सदा देवताओं के सुख की कामना करता हूँ और देवता लोग भी मेरा भली-भाँति पालन करते हैं। इन्द्र ने कहा- विप्रवर! आपको यह मानसिक अथवा शरीरिक दु:ख कैसे प्राप्त हुआ? आप आज उदास और पीले क्यों हो रहे हैं? आप बताइये तो सही, जिन्होंने आपको दु:ख दिया है, उन सबको मैं अभी नष्ट किये देता हूँ।

बृहस्पति जी बोले- मघवन! लोग कहते हैं कि महाराज मरुत्त उत्तम दक्षिणाओं से युक्त एक महान यज्ञ करने जा रहे हैं तथा यह भी मेरे सुनने में आया है कि सवंर्त ही आचार्य होकर वह यज्ञ करायेंगे। परंतु मेरी इच्छा है कि वे उस यज्ञ को न कराने पावें।

इन्द्र ने कहा- ब्रह्मन्! सम्पूर्ण मनोवांछित भोग आपको प्राप्त हैं, क्योंकि आप देवताओं के मन्त्रज्ञ पुरोहित हैं। आपने जरा और मृत्यु दोनों को जीत लिया है। फिर संवर्त आपका क्या कर सकते हैं? बृहस्पति जी बोल- देवराज! तुम असुरों में से जिस-जिस को समृद्धिशाली देखते हो, उसके ऊपर भिन्न-भिन्न स्थानों में देवताओं के साथ आक्रमण करके उन सभी असुरों को मिटा डालना चाहते हो। वास्तव में शत्रुओं की समृद्धि दु:ख का कारण होती है। देवेन्द्र! इसी से मैं भी उदास हो रहा हूँ। मेरा शत्रु संवर्त बढ़ रहा है, यह सुनकर मेरी चिन्ता बढ़ गयी है। अत: मघवन! तुम सभी सम्भव उपायों द्वारा संवर्त और राजा मरुत्त को कैद कर लो।

तब इन्द्र ने अग्रिदेव से कहा- जातवेदा! इधर आओ और मेरा संदेश लेकर मरुत्त के पास जाओ। मरुत्त की सम्मति लेकर बृहस्पति जी को उनके पास पहुँचा देना। वहाँ जाकर राजा से कहना कि ‘ये बृहस्पति जी ही आपका यज्ञ करायेंगे तथा ये आपको अमर भी कर देंगे। अग्रिदेव ने कहा- मघवन! मैं बृहस्पति जी को मरुत्त के पास पहुँचा आने के लिये आज आपका दूत बनकर जा रहा हूँ। ऐसा करके मैं देवेन्द्र की आज्ञा का पालन और बृहस्पति जी का सम्मान करना चाहता हूँ।

व्यास जी कहते हैं- यह कहकर धूममय ध्वजा वाले महात्मा अग्रिदेव वनस्पतियों और लताओं को रौंदते हुए वहाँ से चल दिये। ठीक उसी तरह जैसे शीतकाल के अन्त में स्वच्छन्दतापूर्वक बहने वाली दिगन्तव्यापिनी वायु विशेष गर्जना करती हुई आगे बढ़ रही हो।

मरुत्त ने कहा- मुने! बड़े आश्चर्य की बात है कि आज मैं मूर्तिमान अग्रिदेव को यहाँ आया देख रहा हूँ। आप इनके लिये आसन, पाद्य, अर्घ्य और गौर प्रस्तुत कीजिये। अग्नि ने कहा- निष्पाप नरेश! आपके दिये हुए पाद्य, अर्घ्य और आसन आदि का अभिनन्दन करता हूँ। आपको मालूम होना चाहिये कि इस समय मैं इन्द्र का संदेश लेकर उनका दूत बनकर आपके पास आया हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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