महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 95 श्लोक 1-17

पंचनवतितम (95) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: पंचनवतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
कौरव सभा में श्रीकृष्ण का प्रभावशाली भाषण
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब सभा में सब राजा मौन होकर बैठ गए, तब सुंदर दंतावली से सुशोभित तथा दुंदुभि के समान गंभीर स्वर वाले यदुकुलतिलक भगवान श्रीकृष्ण ने बोलना आरंभ किया। जैसे ग्रीष्मऋतु के अंत में बादल गरजता है, उसी प्रकार उन्होंने गंभीर गर्जना के साथ सारी सभा को सुनाते हुए धृतराष्ट्र की ओर देखकर इस प्रकार कहा। (1-2)
  • श्रीभगवान बोले- भरतनंदन! मैं आपसे यह प्रार्थना करने के लिए यहाँ आया हूँ कि क्षत्रियवीरों का संहार हुए बिना ही कौरवों और पांडवों में शांतिस्थापन हो जाये। (3)
  • शत्रुदमन नरेश! मुझे इसके सिवा दूसरी कोई कल्याणकारक बात आपसे नहीं कहनी है; क्योंकि जानने योग्य जितनी बातें हैं, वे सब आपको विदित ही हैं। (4)
  • भूपाल! इस समय समस्त राजाओं में यह कुरुवंश ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें शास्त्र एवं सदाचार का पूर्णत: आदर एवं पालन किया जाता है। यह कौरव कुल समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है। (5)
  • भारत! कुरुवंशियों में कृपा, अनुकंपा, करुणा, अनृशंसता, सरलता, क्षमा और सत्य- ये सद्गुण अन्य राजवंशों की अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं। (6)
  • राजन! ऐसे उत्तम गुणसम्पन्न एवं अत्यंत प्रतिष्ठित कुल के होते हुए भी यदि इसमें आपके कारण कोई अनुचित कार्य हो, तो यह ठीक नहीं है। (7)
  • तात कुरुश्रेष्ठ! यदि कौरवगण बाहर और भीतर[1] मिथ्या आचरण [2]करने लगें, तो आप ही उन्हें रोककर सन्मार्ग में स्थापित करने वाले हैं। (8)
  • कुरुनंदन! दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ को पीछे करके क्रूर मनुष्यों के समान आचरण करते हैं। (9)
  • पुरुषरत्न! ये अपने ही श्रेष्ठ बंधुओं के साथ अशिष्टतापूर्ण बर्ताव करते हैं। लोभ ने इनके हृदय को ऐसा वशीभूत कर लिया है कि इन्होंने धर्म की मर्यादा तोड़ दी है। इस बात को आप अच्छी तरह जानते हैं। (10)
  • कुरुश्रेष्ठ! इस समय यह अत्यंत भयंकर आपत्ति कौरवों में ही प्रकट हुई है। यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह समस्त भूमंडल का विध्वंस कर डालेगी। (11)
  • भारत! यदि आप चाहते हैं तो इस भयानक विपत्ति का अब भी निवारण किया जा सकता है। भरतश्रेष्ठ! इन दोनों पक्षों में शांति स्थापित होना मैं कठिन कार्य नहीं मानता हूँ। (12)
  • प्रजापालक कौरवनरेश! इस समय इन दोनों पक्षों में संधि कराना आपके और मेरे अधीन है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिए और मैं पांडवों को नियंत्रण में रखूँगा। (13)
  • राजेन्द्र! आपके पुत्रो को चाहिए कि वे अपने अनुयायियों के साथ आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करें। आपके शासन में रहने से इनका महान हित हो सकता है। (14)
  • राजन! यदि आप अपने पुत्रों पर शासन करना चाहें और संधि के लिए प्रयत्न करें तो इसी में आपका भी हित है और इसी से पांडवों का भला हो सकता है। (15)
  • प्रजानाथ! पांडवों के साथ वैर और विवाद का कोई अच्छा परिणाम नहीं हो सकता; यह विचारकर आप स्वयं ही संधि के लिए प्रयत्न करें। जनेश्वर! ऐसा करने से भरतवंशी पांडव आपके ही सहायक होंगे। (16)
  • राजन! आप पांडवों से सुरक्षित होकर धर्म और अर्थ का अनुष्ठान कीजिये। नरेंद्र! आपको पांडवों के समान संरक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते। (17)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रकट और गुप्त रूप से
  2. असद्व्यवहार

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