महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 140 श्लोक 1-17

चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी के द्वारा हिमालय पर्वत पर भूतगणों के सहित शिव जी की शोभा का विस्तृत वर्णन, पार्वती का आगमन, शिव जी की दोनों आँखों को अपने हाथों से बंद करना और तीसरे नेत्र का प्रकट होना, हिमालय का भस्म होना और पुनः प्राकृत अवस्था में हो जाना तथा शिव-पार्वती के धर्म विषयक संवाद की उत्थापना

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर श्रीनारायण के सुहृद भगवान नारद मुनि ने शंकर जी का पार्वती के साथ जो संवाद हुआ था, उसे बताना आरम्भ किया।

नारद जी ने कहा- भगवन! जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं, जो नाना प्रकार की ओषधियों से सम्पन्न तथा भाँति-भाँति के फूलों से व्याप्त होने के कारण रमणीय जान पड़ता है, जहाँ झुंड-की-झुंड अप्सराएँ भरी रहती हैं और भूतों की टोलियाँ निवास करती हैं, उस परम पवित्र हिमालय पर्वत पर धर्मात्मा देवाधिदेव भगवान शंकर तपस्या कर रहे थे। उस स्थान पर महादेव जी सैकड़ों भूत समुदायों से घिरे रहकर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करते थे। उन भूतों के रूप नाना प्रकार के एवं विकृत थे, किन्हीं-किन्हीं के रूप दिव्य एवं अद्भुत दिखायी देते थे। कुछ भूतों की आकृति सिंहों, व्याघ्रों एवं गजराजों के समान थी। उनमें सभी जातियों के प्राणी सम्मिलित थे। कितने ही भूतों के मुख सियारों, चीतों, रीछों और बैलों के समान थे। कितने ही उल्लू जैसे मुख वाले थे। बहुत-से भयंकर भूत भेड़ियों और बाजों के समान मुख धारण करते थे और कितनों के मुख हरिणों के समान थे। उन सबके वर्ण अनेक प्रकार के थे तथा वे सभी जातियों से सम्पन्न थे।

इनके सिवा बहुत-से किन्नरों, यक्षों, गन्धर्वों, राक्षसों तथा भूतगणों ने भी महादेव जी को घेर रखा था। भगवान शंकर की वह सभा दिव्य पुष्पों से आच्छादित, दिव्य तेज से व्याप्त, दिव्य चन्दन से चर्चित और दिव्य धूप की सुगन्ध से सुवासित थी। वहाँ दिव्य वाद्यों की ध्वनि गूँजती रहती थी। मृदंग और पणव का घोष छाया रहता था। शंख और भेरियों के नाद सब ओर व्याप्त हो रहे थे। चारों ओर नाचते हुए भूत समुदाय और मयूर उसकी शोभा बढ़ाते थे। वहाँ अप्सराएँ नृत्य करती थीं, वह दिव्य सभा देवर्षियों के समुदायों से शोभित, देखने में मनोहर, अनिर्वचनीय, अलौकिक और अद्भुत थी। भगवान शंकर की तपस्या से उस पर्वत की बड़ी शोभा हो रही थी। स्वाध्यायपरायण ब्राह्मणों की वेदध्वनि वहाँ सब ओर गूँज रही थी।

माधव! वह अनुपम पर्वत भ्रमरों के गीतों से अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। जनार्दन! वह स्थान अत्यन्त भयंकर होने पर भी महान उत्सव से सम्पन्न-सा प्रतीत होता था। उसे देखकर मुनियों के समुदाय को बड़ी प्रसन्नता हुई। महान सौभाग्यशाली मुनि, ऊर्ध्वरेता सिद्धगण, मरुद्गण, वसुगण, साध्यगण, इन्द्र सहित विश्वेदेवगण, यक्ष और नाग, पिशाच, लोकपाल, अग्नि, समस्त वायु और प्रधान भूतगण वहाँ आये हुए थे। ऋतुएँ वहाँ उपस्थित हो सब प्रकार के अत्यन्त अद्भुत पुष्प बिखेर रही थीं। ओषधियाँ प्रज्ज्वलित हो उस वन को प्रकाशित कर रही थीं। वहाँ के रमणीय पर्वत शिखरों पर लोगों को प्रिय लगने वाली बोली बोलते हुए पक्षी प्रसन्नता से युक्त हो नाचते और कलरव करते थे। दिव्य धातुओं से विभूषित पर्यंक के समान उस पर्वत शिखर पर बैठे हुए महामना महादेव जी बड़ी शोभा पा रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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