महाभारत वन पर्व अध्याय 111 श्लोक 1-13

एकादशाधि‍कशततम (111) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकादशाधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


वेश्‍या का ऋष्‍यशृंग को लुभाना और वि‍भाण्‍डक मुनि‍ का आश्रम पर आकर अपने पुत्र की चि‍न्‍ता का कारण पूछना

लोमश जी कहते है- भरतनन्‍दन! उस वेश्‍या ने राजा की आज्ञा के अनुसार और बुद्धि‍ से भी उनका कार्य सि‍द्ध करने के लि‍ए नाव पर एक सुन्‍दर आश्रम बनाया। वह आश्रम भाँति‍-भाँति‍ के पुष्‍प और फलों से सुशोभि‍त कृत्रि‍म वृक्षों से घि‍रा हुआ था। उन वृक्षों पर नाना प्रकार के गुल्‍म और लता समूह फैले हुए थे और वे वृक्ष स्‍वादि‍ष्‍ट एवं वांछनीय फल देने वाले थे। उन वृक्षों के कारण वह आश्रम अत्‍यन्‍त रमणीय और परम मनोहर दि‍खायी देता था। वैश्‍या ने उस नाव पर जि‍स सुन्‍दर आश्रम का निर्माण कि‍या था; वह देखने में अद्भुत-सा था। तदनन्‍तर उसने अपनी उस नाव को काश्‍यप गोत्रीय वि‍भाण्‍डक मुनि‍ के आश्रम से थोड़ी दूर पर बांध दि‍या और गुप्‍तचरों को भेजकर यह पता लगा लि‍या कि इस समय वि‍भाण्‍डक मुनि‍ अपनी कुटि‍या से बाहर गये हैं।

तदनन्‍तर वि‍भाण्‍डक मुनि‍ को दूर गया देख उस वेश्‍या ने अपनी परम बुद्धि‍मति‍ पुत्री को, जो उसी की भाँति‍ वेश्‍यावृत्‍ति‍ अपनायी हुई थी, कर्तव्‍य की शि‍क्षा देकर मुनि‍ के आश्रम पर भेजा। वह भी कार्यसाधन में कुशल थी। उसने वहाँ जाकर नि‍रन्‍तर तपस्‍या में लगे रहने वाले ऋषि‍कुमार ऋष्‍यशृंग के समीप उस आश्रम मे पहुँचकर उनको देखा। तत्‍पश्‍चात वेश्‍या ने कहा- 'मुने! तपस्‍वी लोग कुशल से तो हैं न? आप लोगों को पर्याप्‍त फल-मूल तो मि‍ल जाते हैं न? आप इस आश्रम में प्रसन्‍न तो हैं न? मैं इस समय आपके दर्शन के लि‍ये ही यहाँ आयी हूँ। क्‍या तपस्‍वी लोगों की तपस्‍या उत्‍तरोत्‍तर बढ़ रही है? आपके पि‍ता का तेज क्षीण तो नहीं हो रहा है? ब्रह्मन! आप मजे में हैं न? ऋष्‍यशृंग जी! आपके स्‍वाध्‍याय का क्रम चल रहा है न?'

ऋष्‍यशृंग बोले- 'ब्रह्मन! आप अपनी समृद्धि‍ से ज्‍योति‍ की भाँति‍ प्रकाशि‍त हो रहे हैं। मैं आपको अपने लि‍ये वन्‍दनीय मानता हूँ और स्‍वेच्‍छा से धर्म के अनुसार आपके लि‍ये पाद्य-अर्ध्‍य एवं फल-मूल अर्पण करता हूँ। इस कुशासन पर आप सुखपूर्वक बैंठें। इस पर काला मृगचर्म बि‍छाया गया है। इसलि‍ये इस पर बैठने में आराम रहेगा। आपका आश्रम कहाँ है? और आपका नाम क्‍या है? ब्रह्मन! आप देवता के समान यह कि‍स व्रत का आचरण कर रहे हैं।'

वेश्‍या बोली- 'काश्‍यपनन्‍दन! मेरा आश्रम बड़ा मनोहर है। वह इस पर्वत के उस पार तीन योजन की दूरी पर स्‍थि‍त है। वहाँ मेरा जो अपना धर्म है, उसके अनुसार आपको मेरा अभि‍वादन (प्रणाम) नहीं करना चाहि‍ये। मैं आपके दि‍ये हुए अर्ध्‍य और पाद्य का स्‍पर्श नहीं करूंगा। मैं आपके लि‍ये वन्‍दनीय नहीं हूँ। आप ही मेरे वन्‍दनीय हैं। ब्रह्मन! मेरा यह नियम है, जि‍सके अनुसार मुझे आपका आलिंगन करना चाहि‍ये।'

ऋष्‍यशृंग ने कहा- ब्रह्मन! मैं तुम्‍हें पके फल दे रहा हूँ। ये भि‍लावा, आंवले, करूषक (फालसा), इंगुद (हि‍ंगोट), धन्‍वन (धामि‍न) और पीपल के फल प्रस्‍तुत हैं– इन सबका इच्‍छानुसार उपयोग कीजि‍ये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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