महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 153 श्लोक 1-16

त्रिपंचाशदधिकशततम (153) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन

वायु ने कहा- मूढ़! मैं महात्मा ब्राह्मणों के कुछ गुणों का वर्णन करता हूँ, सुनो। राजन! तुमने पृथ्वी, जल और अग्नि आदि जिन व्यक्तियों का नाम लिया है, उन सबकी अपेक्षा ब्राह्मण श्रेष्ठ है। एक समय की बात है, राजा अंग के साथ स्पर्धा (लाग-डाट) होने के कारण पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी अपने लोक-धर्म धारणरूप शक्ति का परित्याग करके अदृश्य हो गयीं। उस समय विप्रवर कश्यप ने अपने तपोबल से इस स्थूल पृथ्वी को थाम रखा था।

राजन! ब्राह्मण इस मर्त्यलोक और स्वर्गलोक में भी अजेय हैं। पहले की बात है, महामना अंगिरा मुनि जल को दूध की भाँति पी गये थे। उस समय उन्हें पीने से तृप्ति ही नहीं होती थी। अतः पीते-पीते वे अपने तेज से पृथ्वी का सारा जल पी गये। पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात उन्होंने जल का महान स्रोत बहाकर सम्पूर्ण पृथ्वी को भर दिया। वे ही अंगिरा मुनि एक बार मेरे ऊपर कुपित हो गये थे। उस समय उनके भय से इस जगत को त्याग कर मुझे दीर्घकाल तक अग्निहोत्र की अग्नि में निवास करना पड़ा था। महर्षि गौतम ने ऐश्वर्यशाली इन्द्र को अहल्या पर आसक्त होने के कारण शाप दे दिया था। केवल धर्म की रक्षा के लिये उनके प्राण नहीं लिये।

नरेश्वर! समुद्र पहले मीठे जल से भरा रहता था, परंतु ब्राह्मणों के शाप से उसका पानी खारा हो गया। अग्नि का रंग पहले सोने के समान था, उसमें से धुआँ नहीं निकलता था और उसकी लपट सदा ऊपर की ओर ही उठती थी, किन्तु क्रोध में भरे हुए अंगिरा ऋषि ने उसे शाप दे दिया। इसलिये अब उसमें ये पूर्वोक्त गुण नहीं रह गये। देखो, उत्तम (ब्राह्मण) वर्णधारी ब्रह्मर्षि कपिल के शाप से दग्ध हुए सगर पुत्रों की, जो यज्ञसम्बन्धी अश्व की खोज करते हुए यहाँ समुद्र तक आये थे, ये राख के ढेर पड़े हुए हैं। राजन! तुम ब्राह्मणों की समानता कदापि नहीं कर सकते। उनसे अपने कल्याण के उपाय जानने का यत्न करो।

राजा गर्भस्थ ब्राह्मणों को भी भलीभाँति प्रणाम करता है। दण्डकारण्य का विशाल साम्राज्य एक ब्राह्मण ने ही नष्ट कर दिया। तालजंघ नाम वाले महान क्षत्रिय वंश का अकेले महात्मा और्व ने संहार कर डाला। स्वयं तुम्हें भी जो परम दुर्लभ विशाल राज्य, बल, धर्म तथा शास्त्रज्ञान की प्राप्ति हुई है, वह विप्रवर दत्तात्रेय जी की कृपा से ही सम्भव हुआ है। अर्जुन! अग्नि भी तो ब्राह्मण ही है। तुम प्रतिदिन उसका यजन क्यों करते हो? क्या तुम नहीं जानते कि अग्नि ही सम्पूर्ण लोकों के हव्यवाहन (हविष्य पहुँचाने वाले) हैं अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रत्येक जीव की रक्षा और जीव-जगत की सृष्टि करने वाला है। इस बात को जानते हुए भी तुम क्यों मोह में पड़े हुए हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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