महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 82 श्लोक 1-16

द्वयशीतितम (82) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


लक्ष्‍मी और गौओं का संवाद तथा लक्ष्‍मी की प्रार्थना पर गौओं के द्वारा गोबर और मूत्र में लक्ष्‍मी को निवास के लिये स्‍थान दिया जाना।

युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! मैंने सुना है कि गौओं के गोबर में लक्ष्मी का निवास है; किंतु इस विषय में मुझे संदेह है, अतः इसके सम्बन्ध में यथार्थ बात सुनना चाहता हूँ।

भीष्म जी ने कहा- भरतश्रेष्ठ! नरेश्‍वर! इस विषय में विज्ञ पुरुष गौ और लक्ष्मी के संवाद रूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है। लक्ष्मी ने मनोहर रूप धारण करके गौओं के झुण्ड में प्रवेश किया। उनके रूप-वैभव को देखकर गौएँ आश्‍चर्यचकित हो उठीं। गौओं ने पूछा- 'देवी! तुम कौन हो और कहाँ से आयी हो? इस पृथ्वी पर तुम्हारे रूप की कहीं तुलना नहीं है। महाभागे! तुम्हारी इस रूप संपत्ति से हम लोग बड़े आश्‍चर्य में पड़ गये हैं। इसलिये हम तुम्हारा परिचय जानना चहती हैं। तुम कौन हो कहाँ जाओगी? वरवर्णिनि! ये सारी बातें हमें ठीक-ठीक बताओ।'

लक्ष्मी बोली- 'गौओं! तुम्हारा कल्याण हो। मैं इस जगत में लक्ष्मी नाम से प्रसिद्ध हूँ। सारा जगत मेरी कामना करता है। मैंने दैत्यों को छोड़ दिया। इसलिये वे सदा के लिये नष्ट हो गये हैं। मेरे ही आश्रम में रहने के कारण इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, जल के अधिष्ठाता देवता वरुण और अग्नि आदि देवता सदा आनन्द भोग रहे हैं। देवताओं तथा ऋषियों को मुझसे अनुगृहीत होने पर ही सिद्धि मिलती है। गौओं! मैं जिनके शरीर में प्रवेश नहीं करती, वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। धर्म, अर्थ और काम मेरा सहयोग पाकर ही सुखद होते हैं; अतः सुखदायिनी गौओं! मुझे ऐसे ही प्रभाव से सम्पन्न समझो। मैं तुम सब लोगों के भीतर भी सदा निवास करना चाहती हूँ और इसके लिये स्वयं ही तुम्हारे पास आकर प्रार्थना करती हूँ। तुम लोग मेरा आश्रय पाकर श्रीसम्पन्न हो जाओ।'

गौओं ने कहा- 'देवि! तुम चंचला हो। कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती। इसके सिवा तुम्हारा बहुतों के साथ एक-सा सम्बन्ध है; इसलिये हम तुम्हें नहीं चाहती हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जहाँ आनन्दपूर्वक रह सको जाओ। हमारा शरीर तो यों ही हुष्ट-पुष्ट और सुन्दर है। हमैं तुमसे क्या काम? तुम्हारी जहाँ इच्छो हो, चली जाओ। तुमने दर्शन दिया, इतने से ही हम कृतार्थ हो गयीं।'

लक्ष्मी जी ने कहा- 'गौओं! यह क्या बात है? क्या यही तुम्हारे लिये उचित है कि तुम मेरा अभिनन्दन नहीं करतीं? मैं सती-साध्वी हूँ, दुर्लभ हूँ। फिर भी इस समय तुम मुझे स्वीकार क्यों नहीं करतीं? उत्तम व्रत का पालन करने वाली गौओं। लोक में जो यह प्रवाद चल रहा है कि ‘बिना बुलाये स्वयं किसी के यहाँ जाने पर निश्‍चय ही अनादर होता है’, यह ठीक ही जान पड़ता है। देवता, दानव, गंधर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य बड़ी उग्र तपस्या करके मेरी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। सौम्य स्वभाव वाली गौओं! यह तुम्हारा प्रभाव है कि मैं स्वयं तुम्हारे पास आयी हूँ। अतः तुम मुझे यहाँ ग्रहण करो। चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी में कहीं भी मैं अपमान पाने योग्य नहीं हूँ।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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