एकोनषष्टयधिकशततम (159) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
अज्ञान और लोभ को एक दूसरे का कारण बताकर दोनों की एकता करना और दोनों को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना
युधिष्ठिर ने पूछा- भूपाल! अज्ञान की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, क्षय, उद्गम, मूल, योग, गति, काल, कारण और हेतु क्या हैं? पृथ्वीनाथ! मैं इस विषय को यथावत्रूप से तत्त्व के विवेचनपूर्वक सुनना चाहता हूं; क्योंकि यह जो दु:ख उपलब्ध होता है, उसकी उत्पत्ति का कारण अज्ञान ही है। भीष्मजी ने कहा-राजन्! राग, द्वेष, मोह, हर्ष, शोक, अभिमान, काम, क्रोध, दर्प, तन्द्रा, आलस्य, इच्छा, वैर, ताप, दूसरों की उन्नति देखकर जलना और पापाचार करना–इन सबको (अज्ञान का कार्य होने से) अज्ञान बताया गया है। महाराज! इस अज्ञान की उत्पत्ति और वृद्धि आदि के विषय में जो प्रश्न कर रहें हो, उसके विषय में विशेष विस्तार के साथ किया हुआ मेरा वर्णन सुनो। भारत! पृथ्वीनाथ! अज्ञान और अत्यन्त लोभ–इन दोनों को एक समझो, क्योंकि इनके परिणाम और दोष समान ही हैं। लोभ से ही अज्ञान प्रकट होता है और लोभ के बढ़ने पर वह अज्ञान और भी बढ़ता है। जब तक लोभ रहता है, तब तक अज्ञान भी बना रहता है और जब लोभ का क्षय होता है, तब अज्ञान भी क्षीण हो जाता है। अज्ञान और लोभ के कारण ही जीव नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेता है। मोह ही नि:संदेह लोभ का मूलकारण है। यह कालस्वरूप मोहात्मक अज्ञान ही मनुष्य की बुरी गति का कारण है। लोभ के छिन्न–भिन्न होने में भी काल ही कारण है। मूढ़ मनुष्य को अज्ञान से लोभ और लोभ से अज्ञान होता है। लोभ से ही सारे दोष पैदा होते हैं; इसलिये लोभ को त्याग देना चाहिये। जनक, युवनाश्व, वृषादर्भि, प्रसेनजित् तथा अन्य नरेश लोभ का नाश करके ही दिव्य लोक में गये हैं। कुरूश्रेष्ठ! तुम स्वयं प्रयत्न करके इस प्रत्यक्ष दीखने वाले लोभ का परित्याग करो। लोभ का त्याग कर इस लोक में सुख और मृत्यु के पश्चात् परलोक में भी आनन्द प्राप्त करके सुखपूर्वक विचरोगे। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत आपद्धर्मपर्व में अज्ञान का माहात्म्यविषयक एक सौ उनसठवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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