महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-12

त्रिंश (30) अध्‍याय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

संजय की विदाई तथा युधिष्ठिर का संदेश

संजय ने कहा-नरदेवदेव पाण्‍डुनंदन! आपका कल्‍याण हो। अब मैं आपसे विदा लेता और हस्तिनापुर को जाता हूँ। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि मैंने मानसिक आवेग के कारण वाणी द्वारा कोई ऐसी बात कह दी हो, जिससे आपको कष्‍ट हुआ हो? भगवान श्रीकृष्‍ण, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सात्यकि तथा चेकितान से भी आज्ञा लेकर मैं जा रहा हूँ। आप लोगों को सुख और कल्याण की प्राप्ति हो। राजाओ! आप मेरी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखें।

युधिष्ठिर बोले- संजय! मैं तुम्हें जाने की अनुमति देता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। विद्वन! तुम कभी हम लोगों का अनिष्‍ट-चिन्तन नहीं करते हो। इसलिये कौरव तथा हम लोग सभी तुम्हें शुद्धचित्त एवं मध्‍यस्थ सदस्य समझते हैं। संजय! तुम विश्‍वसनीय दूत और हमारे अत्यन्त प्रिय हो। तुम्हारी बातें कल्याणकारिणी होती हैं। तुम शीलवान और संतोषी हो। तुम्हारी बुद्धि कभी मोहित नहीं होती और कटु वचन सुनकर भी तुम कभी क्रोध नहीं करते हो। सूत! तुम्हारे मुख से कभी कोई ऐसी बात नहीं निकलती, जो कड़वी होने के साथ ही मर्म पर आघात करने वाली हो। तुम नीरस और अप्रासङिगक बात भी नहीं बोलते। हम अच्छी तरह जानते हैं कि तुम्हारा यह कथन धर्मानुकूल होने के कारण मनोहर, अर्थयुक्त तथा हिंसा की भावना से रहित है। संजय! तुम्हीं हमारे अत्यन्त प्रिय हो। जान पड़ता है कि दूसरे विदुरजी ही [1] यहाँ आ गये हैं। पहले भी तुम हमसे बारंबार मिलते रहे हो और धनंजय के तो तुम अपने आत्मा के समान प्रिय सखा हो। संजय! यहाँ से जाकर तुम शीघ्र ही जो आदर और सम्मान के योग्य हैं, उन विशुद्ध शक्तिशाली, ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक वेदों के स्वाध्‍याय में संलग्न, कुलीन तथा सर्वधर्म सम्पन्न ब्राह्मणों को हमारी ओर से प्रणाम कहना। स्वाध्‍यायशील ब्राह्मणों, संन्यासियों तथा सदा वन में निवास करने वाले तपस्वी मुनियों एवं बडे़-बूढे़ लोगों से हमारी ओर से प्रणाम कहना और दूसरे लोगों से भी कुशल-समाचार पूछना।

तात संजय! राजा धृतराष्‍ट्र के पुरोहित, आचार्य तथा उनके ॠत्विजों से भी[2] तुम[3] कुशल-मंगल का समाचार पूछते हुए ही मिलना। तदनन्तर शान्तभाव से उन्हीं की ओर मन की वृत्तियों को एकाग्र करके हाथ जोड़कर मेरे कहने से उन सबको प्रणाम निवेदन करना। तात! जो अश्रोत्रिय (शुद्र) वृद्ध पुरुष मनस्वी तथा शील और बल से सम्पन्न हैं एवं हस्तिनापुर में निवास करते हैं, जो यथाशक्ति कुछ धर्म का आचरण करते हुए हम लोगों के प्रति शुभ कामना रखते हैं और बारंबार हमें याद करते हैं, उन सबसे हम लोगों का कुशल-समाचार निवेदन करना। तत्पश्‍चात उनके स्वास्थ्‍य का समाचार पूछना। जो कौरव-राज्य में व्यापार से जीविका चलाते हैं, पशुओं का पालन करते हुए निवास करते हैं तथा जो खेती करके सब लोगों का भरण-पोषण करते हैं, उन सब वैश्‍यों का भी कुशल-समाचार पूछना।

जिन्होंने वेदों की शिक्षा प्राप्त करने के लिये पहले ब्रह्मचर्य का पालन किया। तत्पश्‍चात मन्त्र, उपचार, प्रयोग तथा सं‍हार इन चार पादों से युक्त अस्त्रविद्या की शिक्षा प्राप्त की, वे सबके प्रिय, नीतिज्ञ, विनयी तथा सदा प्रसन्नचित्त रहने-वाले आचार्य द्रोण भी हमारे अभिवादन के योग्य हैं, तुम उनसे भी मेरा प्रणाम कहना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दुत बनकर
  2. उनके साथ भेंट होने पर
  3. हमारी ओर से

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