पंचत्रिंश (35) अध्याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)
महाभारत: वन पर्व: पंचत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन बोले- महाराज! आप फेन के समान नश्वर, फल के समान पतनशील तथा काल के बन्धन में बंधे हुए मरणधर्मा मनुष्य हैं तो भी आपने सब का अंत और संहार करने वाले, बाण के समान वेगवान्, अनन्त, अप्रमेय एवं जलस्रोत के समान प्रवाहशील लंबे काल को बीच में देकर दुर्योधन के साथ संधि करके उस काल को अपनी आंखों के सामने आया हुआ मानते हैं। किंतु कुन्तीकुमार! सलाई से थोड़ा-थोड़ा करके उठाये जाने वाले अंजनचूर्ण (सुरमे) की भाँति एक-एक निमेष में जिसकी आयु क्षीण हो रही है, वह क्षणभंगुर मानव समय की प्रतीक्षा क्या कर सकता है? अवश्य ही जिसकी आयु की कोई माप नहीं है अथवा जो आयु की निश्चित संख्या को जानता है तथा जिसने सब कुछ प्रत्यक्ष देख लिया है। वही समय की प्रतीक्षा कर सकता है। राजन्! तेरह वर्षों तक हमें जिसकी प्रतीक्षा करनी है। वह काल हमारी आयु को क्षीण करके हम सबको मृत्यु के निकट पहुँचा देगा। देहधारी की मृत्यु सदा उसके शरीर में ही निवास करती है, अतः मृत्यु के पहले ही हमें राज्य प्राप्ति के लिये चेष्ट करनी चाहिये। जिसका प्रभाव छिपा हुआ है, वह भूमि के लिये भाररूप ही है, क्योंकि वह जनसाधारण में ख्याति नहीं प्राप्त कर सकता। वह वैर का प्रतिशोध न लेने के कारण बैल की भाँति दुःख उठाता रहता है। जिसका बल और उद्यम बहुत कम है, जो वैर का बदला नहीं ले सकता, उस पुरुष का जन्म अत्यन्त घृणित है। मैं तो उसके जन्म को निष्फल मानता हूँ। महाराज! आपकी दोनों भुजाएं सुवर्ण की अधिकारिणी हैं। आपकी कीर्ति राजा पृथु के समान है। आप युद्ध में शत्रु का संहार करके अपने बाहुबल से उपार्जित धन का उपभोग कीजिये। शत्रुदमन नरेश! यदि मनुष्य अपने को धोखा देने वाले शत्रु का वध करके तुरन्त ही नरक में पड़ जाये तो उसके लिये वह नरक भी स्वर्ग के तुल्य है। अमर्ष से जो संताप होता है, वह आग से भी बढ़कर जलाने वाला है। जिससे संतप्त होकर मुझे न तो रात में नींद आती है और न दिन में। ये हमारे भाई अर्जुन धनुष की प्रत्यंचा खींचने में सबसे श्रेष्ठ हैं; परन्तु ये भी निश्चय ही अपनी गुफा में दु:खी होकर बैठे हुए सिंह की भाँति सदा अत्यन्त संतप्त होते रहते हैं। जो अकेले ही संसार के समस्त धनुर्धर वीरों का सामना कर सकते हैं, वे ही अर्जुन महान् गजराज की भाँति अपने मानसिक क्रोधजनित संताप को किसी प्रकार रोक रहे हैं। नकुल, सहदेव तथा वीर पुत्रों को जन्म देने वाली हमारी बूढ़ी माता कुन्ती, ये सब के सब आपका प्रिय करने की इच्छा रखकर ही मूर्खों और गूंगों की भाँति चुप रहते हैं। आपके सभी बन्धु-बान्धव और सृंजयवंशी योद्धा भी आपका प्रिय करना चाहते हैं। केवल हम दो व्यक्तियों को ही विशेष कष्ट है। एक तो मैं संतप्त होता हूँ और दूसरी प्रतिविन्ध्य की माता द्रौपदी। मैं जो कुछ कहता हूं, वह सबको प्रिय है। हम सब लोग संकट में पड़े हैं और सभी युद्ध का अभिनन्दन करते हैं। राजन्! इससे बढ़कर अत्यन्त दुःखदायिनी विपत्ति और क्या होगी कि नीच और दुर्बल शत्रु हम बलवानों का राज्य छीनकर उनका उपभोग कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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