महाभारत वन पर्व अध्याय 100 श्लोक 1-18

शततम (100) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: शततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


वृत्रासुर से त्रस्‍त देवताओं को महर्षि दधीच का अस्थिदान एवं वज्र का निर्माण

युधिष्ठिर ने कहा- द्विजश्रेष्‍ठ! मैं पुन: बुद्धिमान महर्षि अगस्‍त्‍य जी के चरित्र का विस्‍तारपूर्वक वर्णन सुनना चाहता हूँ।

लोमश जी ने कहा- महाराज! अमित तेजस्‍वी महर्षि अगस्‍त्‍य की कथा दिव्‍य, अद्भुत और अलौकिक है। उनका प्रभाव महान् है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, सुनो।

सत्‍ययुग की बात है, दैत्‍यों के बहुत से भयंकर दल थे, जो कालकेय के नाम से विख्‍यात थे। उनका स्‍वभाव अत्‍यन्‍त निर्दय था। वे युद्ध में उन्‍मत होकर लड़ते थे। उन सब ने एक दिन वृत्रासुर की शरण ले उसकी अध्‍यक्षता में नाना प्रकार के आयुधों से सुसज्जित हो महेन्‍द्र आदि देवताओं पर चारों ओर से आक्रमण किया। तब समस्‍त देवता वृत्रासुर के वध के प्रयत्‍न में लग गये। वे देवराज इन्‍द्र को आगे करके ब्रह्माजी के पास गये। वहाँ पहुँचकर सब देवता हाथ जोड़कर खडे़ हो गये। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा- ’देवताओ! तुम जो कार्य सिद्ध करना चाहते हो, वह सब मुझे मालूम है। मैं तुम्‍हें एक उपाय बता रहा हूँ, जिससे तुम वृत्रासुर का वध कर सकोगे। दधीच नाम से विख्‍यात जो उदारचेता महर्षि हैं, उनके पास जाकर तुम सब लोग एक ही वर माँगो। वे बड़े धर्मात्‍मा हैं। अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न मन से तुम्‍हें मुँहमाँगी वस्‍तु देंगे। जब वे वर देना स्‍वीकार कर लें, तब विजय की अभिलाषा रखने वाले तुम सब लोग उनसे एक साथ यों कहना- ‘महात्‍मन्! आप तीनों लोकों के हित के लिये अपने शरीर की हड्डियाँ प्रदान करें। तुम्‍हारे माँगने पर वे शरीर त्‍यागकर अपनी हड्डियाँ दे देंगे। उनकी हड्डियों द्वारा तुम लोग सुदृढ़ एवं अत्‍यन्‍त भयंकर वज्र का निर्माण करो। उसकी आकृति षट्कोण के समान होगी। वह महान् एवं घोर शत्रुनाशक अस्‍त्र भयंकर गड़गड़ाहट पैदा करने वाला होगा। उस वज्र के द्वारा इन्‍द्र निश्‍चय ही वृत्रासुर का वध कर डालेंगे। ये सब बातें मैंने तुम्‍हें बता दी हैं। अत: अब शीघ्र करो।'

ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर सब देवता उनकी आज्ञा ले भगवान नारायण को आगे करके दधीच के आश्रम पर गये। वह आश्रम सरस्वती नदी के उस पार था। अनेक प्रकार के वृक्ष और लताएँ उसे घेरे हुए थीं। भ्रमरों के गीतों की ध्‍वनि से वह स्‍थान इस प्रकार गूँज रहा था, मानो सामगान करने वाले ब्राह्मणों द्वारा सामवेद का पाठ हो रहा हो। कोकिल के कलरवों से कूजित और दूसरे जन्‍तओं (पशु-पक्षियों) के शब्‍दों से कोलाहलपूर्ण बना हुआ वह आश्रम सजीव-सा जान पड़ता था। भैंसे, सूअर, बाल मृग और चवँरी गायें बाघ-सिहों के भय से रहित हो उस आश्रम के आसपास विचर रही थीं। अपने कपोलों से मद की धारा बहाने वाले हाथी और हथिनियाँ वहाँ सरोवर के जल में गोते लगाकर क्रीड़ाएँ कर रहे थे, जिससे आश्रम के चारों ओर कोलाहल-सा हो रहा था। पर्वतों की गुफाओं तथा कन्‍दराओं में लेटे, झाड़ियों में छिपे और वन में विचरते हुए जोर-जोर से दहाड़ने वाले सिहों और व्‍याघ्रों की गर्जना से वह स्‍थान गूंज रहा था। विभिन्‍न स्‍थानों में अधिक शोभा पाने वाला महर्षि दधीच का वह मनोरम आश्रम स्‍वर्ग के समान प्रतीत होता था। देवता लोग वहाँ आ पहुँचे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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