शततम (100) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: शततम अध्याय: श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! उस समय सब देवताओं ने महर्षि के चरणों में अभिवादन एवं प्रणाम करके ब्रह्माजी ने जैसे कहा था, उसी प्रकार उनसे वर माँगा। तब महर्षि दधीच ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन श्रेष्ठ देवताओं से इस प्रकार कहा- ‘देवगण! आज मैं वही करूँगा, जिससे आप लोगों का हित हो। अपने इस शरीर को मैं स्वयं ही त्याग देता हूँ।' ऐसा कहकर मनुष्यों में श्रेष्ठ, जितेन्द्रिय महर्षि दधीच ने सहसा अपने प्राणों को त्याग दिया। तब देवताओं ने ब्रह्माजी के उपदेश के अनुसार महर्षि के निर्जीव शरीर से हड्डियाँ ले लीं। इसके बाद वे हर्षोल्लास से भरकर विजय की आशा लिये त्वष्टा प्रजापति के पास आये और उनसे अपना प्रयोजन बताया। देवताओं की बात सुनकर त्वष्टा प्रजापति बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने एकाग्रचित्त हो प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त भयंकर वज्र का निर्माण किया। तत्पश्चात् वे हर्ष में भरकर इन्द्र से बोले– ‘देव! इस उत्तम वज्र से आप आज ही भयंकर देवद्रोही वृत्रासुर को भस्म कर डालिये। इस प्रकार शत्रु के मारे जाने पर आप देवगणों के साथ स्वर्ग में रहकर सुखपूर्वक सम्पूर्ण स्वर्ग का शासन एवं पालन कीजिये।' त्वष्टा प्रजापति के ऐसा कहने पर इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने शुद्धचित्त होकर उनके हाथ से वह वज्र ले लिया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में वज्र निर्माण कथन विषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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