अष्टषष्टितम (68) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: अष्टषष्टितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
पार्थ! यदि तुमने द्वैतवन में यह कह दिया होता कि ‘राजन! मैं कर्ण के साथ युद्ध नहीं कर सकूंगा’ तो हम सब लोग समयोचित कर्त्तव्य का निश्चय करके उसी के अनुसार कार्य करते। वीर! तुमने मुझसे कर्ण के वध की प्रतिज्ञा करके उसका उसी रुप में पालन नहीं किया। यदि ऐसा ही करना था तो हमें शत्रुओं के बीच में लाकर पत्थर की वेदी पर पटककर पीस क्यों डाला। राजकुमार अर्जुन! हमने बहुत से मंगलमय अभीष्ट पदार्थ प्राप्त करने की इच्छा रखकर तुम पर आशा लगा रखी थी; परंतु फल चाहने वाले मनुष्यों को अधिक फूलों वाला फलहीन वृक्ष जैसे निराश कर देता है, उसी प्रकार तुम से हमारी सारी आशा निष्फल हो गयी। मैं राज्य पाना चाहता था; किंतु तुमने मांस के ढके हुए वंशी के कांटे और भोजन सामग्री से आच्छादित हुए विष के समान मुझे राज्य के रुप में अनर्थकारी विनाश का ही दर्शन कराया है। धनंजय! जैसे बोया हुआ बीज समय पर मेघ द्वारा की हुई वर्षों की प्रतीक्षा में जीवित रहता है, उसी प्रकार हमने तेरह वर्षों तक सदा तुम पर ही आशा लगाकर जीवन धारण किया था; परंतु तुमने हम सब लोगों को नरक में डुबो दिया (भारी संकट में डाल दिया)। मन्दबुद्धि अर्जुन! तुम्हारे जन्म लिये सात ही दिन बीते थे कि माता कुन्ती से आकाशवाणी ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया- ‘देवि! तुम्हारा यह पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी पैदा हुआ है। यह अपने समस्त शूरवीर शत्रुओं को जीत लेगा। यह उत्तम शक्ति से सम्पन्न बालक खाण्डववन में देवताओं के समूहों तथा सम्पूर्ण प्राणियों पर भी विजय प्राप्त करेगा। यह मद्र, कलिंग और केकयों को जीतेगा तथा राजाओं की मण्डली में कौरवों का भी विनाश कर डालेगा। इससे बढ़कर दूसरा कोई धनुर्धर नहीं होगा। कोई भी प्राणी कभी भी इसे जीत नहीं सकेगा। यह अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखता हुआ सम्पूर्ण विद्याओं को प्राप्त कर लेगा और इच्छा करते ही सभी प्राणियों को अपने अधीन कर सकेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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