महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-20

द्वितीय (2) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

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महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण और व्यास जी का युधिष्ठिर को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र के कहने पर भी मेधावी युधिष्ठिर चुप ही रहे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘जनेश्वर! यदि मनुष्य मरे हुए प्राणी के लिये अपने मन में अधिक शोक करता है तो उसका वह शोक उसके पहले के मरे हुए पितामहों को भारी संताप में डाल देता है। इसलिए आप बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कीजिये और सोमरस द्वारा देवताओं तथा स्वधा द्वारा पितरों को तृप्त कीजिये। अतिथियों को अन्न और जल देकर तथा अकिंचन मनुष्यों को दूसरी-दूसरी मन चाही वस्तुएँ देकर संतुष्ट कीजिये। आपने जानने योग्य तत्त्व को जान लिया है। करने योग्य कार्य को पूर्ण कर लिया है। आपने गंगानन्दन भीष्म से राजधर्मों का वर्णन सुना है। श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद और विदुर जी से कर्त्तव्य का उपदेश श्रवण किया है। अत: आपको मूढ़ पुरुषों के इस बर्ताव का अनुसरण नहीं करना चाहिए। पिता-पितामहों के बर्ताव का आश्रय लेकर राजकार्य का भार सँभालिये।

इस युद्ध में वीरोचित सुयश से युक्त हुआ सारा क्षत्रिय समुदाय स्वर्ग लोक पाने का अधिकारी है, क्योंकि इन शूरवीरों में से कोई भी युद्ध में पीठ दिखाकर नहीं मारा गया है। महाराज! शोक त्याग दीजिये, क्योंकि जो कुछ हुआ है, वैसी ही होन हार थी। इस युद्ध में जो लोग मारे गये हैं, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते। धर्मराज युधिष्ठिर से ऐसा कहकर महातेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण चुप हो गये। तब युधिष्ठिर ने उनसे कहा। युधिष्ठिर बोले- गोविन्द! आपका जो मेरे ऊपर प्रेम है, वह मुझे अच्छी तरह ज्ञात है। आप स्नेह और सौहार्दवश सदा ही मुझ पर कृपा करते रहते हैं। चक्र और गदा धारण करने वाले श्रीमान यादवनन्दन! यदि आप प्रसन्न मन से मुझे तपोवन में जाने की आज्ञा दे दें तो मेरा सारा और महान प्रिय कार्य सम्पन्न हो जाय। उस दशा में मैं कृत कार्य हो जाऊँगा, यह मेरा निश्चित विचार है। मैं क्रूरतापूर्वक पितामह भीष्म को, बल पराक्रम से सम्पन्न पुरुष सिंह गुरुदेव द्रोणाचार्य और युद्ध से कभी पीठ न दिखाने वाले नरश्रेष्ठ कर्ण को मरवाकर कभी शान्ति नहीं पा सकता। शत्रुदमन श्रीकृष्ण! अब जिस कर्म के द्वारा मुझे अपने इस क्रूरतापूर्ण पापा से छुटकारा मिले तथा जिससे मेरा चित्त शुद्ध हो, वही कीजिये।

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को ऐसी बातें करते देख धर्म के तत्त्व को जाने वाले महातेजस्वी व्यास जी ने उन्हें सांत्वना देते हुए यह शुभ एवं सार्थक वचन कहा- ‘तात! तुम्हारी बुद्धि अभी शुद्ध नहीं हुई है। तुम पुन: बालकोचित अविवेक के कारण मोह में पड़ गये। तात! अब हम लोग किस लायक रह गये। हम बारंबार जो कुछ कहते या समझाते हैं वह सब व्यर्थ का प्रलाप सिद्ध हो रहा है। युद्ध से ही जिनकी जीविका चलती है, उन क्षत्रियों के धर्म भलि भाँति तुम्हें विदित हैं। उनके अनुसार बर्ताव करने वाला राजा कभी मानसिक चिन्ता से ग्रस्त नहीं होता। तुमने सम्पूर्ण मोक्ष धर्मों को भी यथार्थ रूप से सुना है। तुम्हें कामजनित माया का जिस प्रकार परित्याग करना चाहिए, उस प्रकार उसका त्याग करने वाला नरेश कभी बन्धन में नहीं पड़ता। मैंने अनेक बार तुम्हारे काम जनित संदेहों का निवारण किया है; परंतु तुम दुर्बुद्धि होने के कारण उस पर श्रद्धा नहीं करते। निश्चय इसीलिये तुम्हारी स्मरण शक्ति लुप्त हो गयी है। तुम ऐसे न बनो, तुम्हारे लिये इस तरह अज्ञान का अवलम्बन उचित नहीं है। निष्पाप नरेश! तुम्हें सब प्रकार के प्रायश्चितों का भी ज्ञान है। तुमने सब प्रकार के राजधर्म और दानधर्म भी सुने हैं। भारत! इस प्रकार सब धर्मों के ज्ञाता और सम्पूर्ण शास्त्रों के विद्वान होकर भी तुम अज्ञानवश बारंबार मोह में क्यों पड़ते हो?’


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अंतगर्त अश्वमेधपर्व में दूसरा अध्याय पूरा हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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