महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 303 श्लोक 1-15

त्रयधिकत्रिशततम (303) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयधिकत्रिशततम अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का अपने को नाना प्रकार के कर्मों का कर्ता और भोक्‍ता मानना एवं नाना योनियों में बारंबार जन्‍म ग्रहण करना

वसिष्‍ठ जी कहते हैं– राजन! इस प्रकार जीव बोधहीन होने के कारण अज्ञान का ही अनुसरण करता है; इसीलिये उसे एक शरीर से सहस्‍त्रों शरीरों में भ्रमण करना पड़ता है। वह गुणों के साथ संबंध होने से उन्‍हीं गुणों की सामर्थ्‍य से कभी सहस्‍त्रों बार तिर्यग्‍योनियों में और कभी देवताओं में जन्‍म लेता है। कभी मानव-योनि से स्‍वर्गलोक में जाता है और कभी स्‍वर्ग से मनुष्‍यलोक में लौट आता है। मनुष्‍य लोक से कभी-कभी अनन्‍त नरकों में भी जाना पड़ता है। जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही उत्‍पन्‍न किये हुए तन्‍तुओं से अपने को सब ओर से बांध लेता है, उसी प्रकार यह निर्गुण आत्‍मा भी अपने ही प्रकट किये हुए प्राकृत गुणों से बंध जाता है। वह स्‍वयं सुख-दुख आदि द्वन्‍द्वों से रहित होने पर भी भिन्‍न-भिन्‍न योनियों में जन्‍म धारण करके सुख-दुख को भोगता है। उसे कभी सिर में दर्द होता, कभी आँख दुखती, कभी दाँत व्‍यथा होती और कभी गले में घेंघा निकल आता है। इसी प्रकार वह जलोदर, तृषारोग, ज्‍वर, गलगण्‍ड(गलसूआ), विषूचिका (हैजा), सफेद कोढ, अग्निदाह, सिध्‍मा[1] (सफेद दाग या सेहुँवा), अपस्‍मार (मृगी) आदि रोगों का शिकार होता रहता है। इनके सिवा और भी जितने प्रकार के प्रकृतिजन्‍य विचित्र रोग या द्वन्‍द्व देहधारियों में उत्‍पन्‍न होते हैं, उन सबसे यह अपने को आक्रान्‍त मानता है। कभी अपने को सहस्‍त्रों तिर्यग्‍योनियों का जीव समझता है और कभी देवत्‍व का अभिमान धारण करता है तथा इसी अभिमान के कारण उन-उन शरीरों द्वारा किये हुए कर्मों का फल भी भोगता है। फल की आशा से बंधा हुआ मनुष्‍य कभी नये-धुले सफेद वस्‍त्र पहनता है और कभी फटे-पुराने मैले वस्‍त्र धारण करता है, कभी पृथ्‍वी पर सोता है, कभी मेंढक के समान हाथ-पैर सिकोड़कर शयन करता है, कभी वीरासन से बैठता है और कभी खुले आकाश के नीचे। कभी चीर और वल्‍कल पहनता है, कभी ईट और पत्‍थर पर सोता-बैठता है तो कभी काँटों के बिछौनों पर। कभी राख बिछाकर सोता है, कभी-कभी भूमि पर ही लेट जाता है, कभी किसी पेड़ के नीचे पड़ा रहता है। कभी युद्धभूमि में, कभी पानी और कीचड़ में, कभी चौकियों पर तथा कभी नाना प्रकार की शय्‍याओं पर सोता है। कभी मूँज की मेखला बाँधे कौपीन धारण करता है, कभी नंग-धड़ंग घूमता है। कभी रेशमी वस्‍त्र और कभी काला मृगचर्म पहनता है। कभी सन या ऊन के बने वस्‍त्र धारण करता है। कभी व्‍याघ्र या सिंह के चमड़ों से अपने अंगों को ढँक लेता है। कभी रेशमी पीताम्‍बर पहनता है। कभी फलकवस्‍त्र (भोजपत्र की छाल), कभी साधारण वस्‍त्र और कभी कण्‍टकवस्‍त्र धारण करता है। कभी कीड़ों से निकले हुए रेशम के मुलायम वस्‍त्र पहनता है तो कभी चिथड़े पहनकर रहता है। वह अज्ञानी जीव इनके अतिरिक्‍त भी नाना प्रकार के वस्‍त्र पहनता, विचित्र-विचित्र भोजनों के स्‍वाद लेता और भाँति-भाँति के रत्‍न धारण करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. किसी-किसी टीकाकार ने ‘सिध्‍मा’ का अर्थ ‘खांसी’ और ‘दमा’ भी किया है। परंतु कोष-प्रसिद्ध अर्थ ‘सफेद दाग या सेहूँवा’ ही है।

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