महाभारत सभा पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-15

एकविंश (21) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकविंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा, चैत्यक पर्वत शिखर और नगाड़ों को तोड़-फोड़कर तीनों का नगर एवं राजभवन में प्रवेश तथा श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद

श्रीकृष्ण बोले- कुन्तीनन्दन! देखो, वह मगध देश की सुन्दर एवं विशाल राजधानी कैसी शोभा पा रही है। वहाँ पशुओं की अधिकता है। जल की भी सदा पूर्ण सुविधा रहती है। यहाँ भरा-पूरा यह नगर बड़ा मनोहर प्रतीत होता है। तात! यहाँ विहारोपयोगी विपुल, वराह, वृषभ (ऋषभ), ऋषिगिरि (मातंग) तथा पाँचवाँ चैत्यक नाम पर्वत है। बड़े बडे़ शिखर वाले ये पाँचों सुन्दर पर्वत शीतल छाया वाले वृक्षों से सुशोभित हैं और एक साथ मिलकर एक-दूसरे के शरीर का स्पर्श करते हुए मानो गिरिव्रज नगर की रक्षा कर रहे हैं। वहाँ लोध नामक वृक्षों के कई मनोहर वन हैं, जिनसे वे पाँचों पर्वत ढके हुए से जान पड़ते हैं। उनकी शाखाओं के अग्रभाग में फूल ही फूल दिखायी देते है। लोधों के ये सुगन्धित वन कामीजनों को बहुत प्रिय हैं। यहीं अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले महामना गौतम ने उशीनर देश की शूद्रजातीय कन्या के गर्भ से काक्षीवान् आदि पुत्रों को उत्पन्न किया था। इसी कारण वह गौतम मुनि राजाओं के प्रेम से वहाँ आश्रम में रहता तथा मगधदेशीय राजवंश की सेवा करता है। अर्जुन! पूर्वकाल में अंग-वंग आदि महाबली राजा भी गौतम के घर में आकर आनन्दपूर्वक रहते थे।

पार्थ! गौतम के आश्रम के निकट लहलहाती हुई पीपल और लोधों की इन सुन्दर एवं मनोरम वनपंक्तियों को तो देखा। यहाँ अर्बुद और शक्रवापी नाम वाले दो नाग रहते हैं, जो अपने शत्रुओं को संतप्त करने वाले हैं। यहीं स्वस्तिक नाग और मणि नाग के भी उत्तम भवन हैं। मनु ने मगध देश के निवासियों को मेघों के लिये अपरिहार्य (अनुग्राह्य) कर दिया है; (अतः वहाँ सदा ही बादल समय पर यथेष्ट वर्षा करते हैं)। चण्डकौशिक मुनि और मणिमान नाग भी मगध देश पर अनुग्रह कर चुके हैं। श्वेतवर्ण के वृषभ, विपुल, वाराह, गिरिश्रेष्ठ चैत्यक तथा मातंग गिरि- इन सभी श्रेष्ठ पर्वतों पर सम्पूर्ण सिद्धों के विशाल भवन हैं तथा यतियों, मुनियों और महात्माओं के बहुत से आश्रम हैं। वृषभ, महापराक्रमी तमाल, गन्धर्वों, राक्षसों तथा नागों के भी निवास स्थान उन पर्वतों की शोभा बढ़ाते हैं। इस प्रकार चारों ओर से दुर्धर्ष उस रमणीय नगर को पाकर जरासंध को यह अभिमान बना रहता है कि मुझे अनुपम अर्थसिद्धि प्राप्त होगी। आज हम लोग उसके घर पर ही चलकर उसका सारा घमंड हर लेंगे।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसी बातें करते हुए वे सभी महातेजस्वी भाई श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन मगध की राजधानी में प्रवेश करने के लिये चल पड़े। वह नगर चारों वर्णों के लोगों से भरा-पूरा था। उसमें रहने वाले सभी लोग हष्ट-पुष्ट दिखायी देते थे। वहाँ अधिकाधिक उत्सव होते रहते थे। कोई भी उसको जीत नहीं सकता था। ऐसे गिरिव्रज के निकट वे तीनों जा पहुँचे। वे मुख्य फाटक पर न जाकर नगर के चैत्यक नामक ऊँचे पर्वत पर चले गये। उस नगर में निवास करने वाले मनुष्य तथा बृहद्रथ परिवार के लोग उस पर्वत की पूजा किया करते थे। मगध देश की प्रजा को यह चैत्यक पर्वत बहुत ही प्रिय था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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