महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-20

षट्षष्टितम (66) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का अर्जुन से भ्रमवश कर्ण के मारे जाने का वृत्तान्‍त पूछना


युधिष्ठिर बोले- देवकीनन्‍दन! तुम्‍हारा स्‍वागत हो! धनंजय! तुम्‍हारा भी स्‍वागत है। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन! इस समय तुम दोनों का दर्शन मुझे अत्‍यन्‍त प्रिय लगा है; क्‍योंकि तुम दोनों ने स्‍वयं किसी प्रकार की क्षति न उठाकर सकुशल रहते हुए महारथी कर्ण को मार डाला है।

कर्ण युद्ध में विषधर सर्प के समान भयंकर, सम्‍पूर्ण शस्त्र विद्याओं में निपुण तथा कौरवों का अगुआ था। वह शत्रुपक्ष में सबका कल्‍याण साधक और कवच बना हुआ था। वृषसेन और सुषेण जैसे धनुर्धर उसकी रक्षा करते थे। परशुराम जी से अस्त्र-शस्त्रों ज्ञान प्राप्‍त करके वह महान शक्तिशाली और अत्‍यन्‍त दुर्जय हो गया था। समस्‍त संसार का सर्वश्रेष्‍ठ रथी एवं विश्वविख्‍यात वीर था। धृतराष्ट्र पुत्रों का रक्षक, सेना के मुहाने पर जाकर युद्ध करने वाला, शत्रु सैनिकों का संहार करने में समर्थ तथा विरोधियों का मान मर्दन करने वाला था। वह सदा दुर्योधन के हित में संलग्‍न रहकर हम लोगों को दु:ख देने के लिये अद्यत रहता था। महायुद्ध में इन्‍द्रसहित सम्‍पूर्ण देवता भी उसे परास्‍त नहीं कर सकते थे। वह तेज में अग्रि, बल में वायु और गम्‍भीरता में पाताल के समान था। अपने मित्रों का आनन्‍द बढ़ाने वाला और मेरे मित्रों के लिये यमराज के समान था। किसी असुर को जीतकर आये हुए दो देवताओं के समान तुम दोनों मित्र महासमर में कर्ण को मारकर यहाँ आ गये, यह बड़े सौभाग्‍य की बात है। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन! सम्‍पूर्ण प्रजा का संहार करने की इच्‍छा रखने वाले काल के समान उस कर्ण ने आज मेरे साथ घोर युद्ध किया था। फिर भी मैंने उसमें दीनता नहीं दिखायी। उसने सात्‍यकि, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव, वीर शिखण्‍डी, द्रौपदीपुत्र तथा पांचालों के देखते-देखते मेरी ध्‍वजा काट डाली, पार्श्‍वरक्षकों को मार डाला और मेरे घोड़ों का भी संहार कर डाला था।

महाबाहो! महायुद्ध में विजय के लिये प्रयत्‍न करने वाले महापराक्रमी कर्ण ने इन बहुसंख्‍यक शत्रुगणों को परास्‍त करके मुझ पर विजय पायी थी। योद्धाओं में श्रेष्‍ठ वीर! उसने युद्ध में मेरा पीछा करके जहाँ-तहाँ मुझे अपमानित करते हुए बहुत से कटुवचन सुनाये हैं- इसमें संशय नहीं है। धनंजय! मैं इस समय भीमसेन के प्रभाव से ही जीवित हूँ। यहाँ अधिक कहने से क्‍या लाभ मैं उस अपमान को किसी प्रकार सह नहीं सकता। अर्जुन! मैं जिससे भयभीत होकर तेरह वर्षों तक न तो रात में अच्‍छी तरह नींद ले सका और न दिन में ही कहीं सुख पा सका। धनंजय! मैं उसके द्वेष से निरन्‍तर जलता रहा। जैसे वाध्रीणस नामक पशु अपनी मौत के लिये ही वध स्‍थान में पहुँच जाय, उसी प्रकार मैं भी अपनी मृत्‍यु के लिये कर्ण का समाना करने चला गया था। मैं कर्ण को युद्ध में कैसे मार सकता हूं, यही सोचते हुए मेरा यह दीर्घकाल व्‍यतीत हुआ है। कुन्‍तीनन्‍दन! मैं जागते और सोते समय सदा कर्ण को ही देखा करता था। यह सारा जगत मेरे लिये जहाँ-तहाँ कर्णमय हो रहा था। धनंजय! मैं जहां-जहाँ भी जाता, कर्ण से भयभीत होने के कारण सदा उसी को अपने सामने खड़ा देखता था। पार्थ। मैं समरभूमि में कभी पीठ न दिखाने वाले उसी वीर कर्ण के द्वारा रथ और घोड़ों सहित परास्‍त करके केवल जीवित छोड़ दिया गया हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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